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धर्मध्यान का स्वरूप
__ योगशास्त्र दशम प्रकाश श्लोक १२ से १३ | भी भोगता है। नरक, तिथंच और मनुष्य गति में जो दुःख भोगा है उसमें मेरा अपना ही प्रमाद और मेरा अपना ही
दुष्ट मन कारण है। 'प्रभो! आपका श्रेष्ठ सम्यक्त्व प्राप्त होने पर भी मन वचन और काया से दुष्ट चेष्टा करके मैं अपने हाथों अपने जीवन को मोहाग्निसे जलाकर दुःखी हुआ हूँ। आत्मन्! मोक्षमार्ग स्वाधीन होने पर भी उस मार्ग को छोड़कर तूंने स्वयं ही कुमार्ग को ढूंढकर अपनी आत्मा को कष्ट में डाला है। जैसे स्वतंत्र राज्य मिलने पर भी कोई मूर्खशिरोमणि गली-गली में भीख मांगता फिरता है, वैसे ही मोक्ष का सुख स्वाधीन होने पर भी मुझ सा मूढ़ जीव पुद्गलों से भीख मांगता हुआ संसार में भटकता फिर रहा है। इस प्रकार अपने लिए और दूसरों के लिए चार गति के दुःखों का परंपराविषयक विचार करना और उनसे सावधान होना, अपाय-विषय नामक धर्मध्यान है ।।११।। ___अब विपाकविषयक धर्मध्यान कहते हैं
।८८०। प्रतिक्षणसमुद्भूतो, यत्र कर्मफलोदयः। चिन्त्यते चित्ररूपः स, विपाकविचयो मतः ॥१२॥ ।८८१। या सम्पदाऽर्हतो या च, विपदा नारकात्मनः । एकातपत्रता तत्र, पुण्यापुण्यस्य कर्मणः ॥१३॥ अर्थ :- क्षण-क्षण में उत्पन्न होने वाले विभिन्न प्रकार के कर्मफल के उदय का चिंतन करना, विपाक-विषयक
धर्मध्यान कहलाता है। उसी बात का विचार करते हुए दिग्दर्शन कराते हैं कि श्रीअरिहंत भगवान् को जो श्रेष्ठतम संपत्तियां और नारकीय जीवों को जो घोरतम विपत्तियाँ होती है, इन दोनों में पुण्यकर्म और
पापकर्म की एकछत्र प्रभुता है। अर्थात् पुण्य-पाप की प्रबलता ही सुख-दुःख का कारण है।।१२-१३।। व्याख्या :- इस विषय के आंतरश्लोकों का भावार्थ कहते हैं-विपाक अर्थात् शुभाशुभ कर्मो का फल। इस फल का अनुभव द्रव्य-क्षेत्रादि सामग्री के अनुसार अनेक प्रकार से होता है। इसमें स्त्री-आलिंगन, स्वादिष्ट खाद्य आदि भोग, पुष्पमाला, चंदन आदि अंगों के उपभोग शुभ पुण्यकर्म हैं और सर्प, शस्त्र, अग्नि विष आदि का अनुभव अशुभ पापकर्म के फल हैं। यह द्रव्य-सामग्री है। सौधर्म आदि देव-विमान, उपवन, बाग, महल, भवन आदि क्षेत्र-प्राप्ति शुभपुण्योदय का फल है और श्मशान, जंगल, शून्य, रण, आदि क्षेत्र की प्राप्ति अशुभ-पाप का फल है। न अत्यंत ठंड, न अत्यंत गर्मी, बसंत और शरद्ऋतु आदि आनंददायक काल का अनुभव शुभपुण्य-फल है और बहुत गर्मी, बहुत ठंड, ग्रीष्म
और हेमंतऋतु आदि दुःखदकाल का अनुभव अशुभ-पापफल है। मन की निर्मलता, संतोष, सरलता, नम्रभावसहित व्यवहार आदि शुभभाव पुण्य के फल हैं और क्रोध, अभिमान, कपट, लोभ, रौद्रध्यान आदि अशुभ भाव पाप के फल हैं। उत्तम देवत्व, युगलियों की भोगभूमि में, मनुष्यों में जन्म; भवविषयक शुभ पुण्योदय है; भील आदि म्लेच्छ-जाति के मनुष्यों में जन्म, तिर्यच, नरक आदि में जन्म ग्रहण करना अशुभ पापोदय है। इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, और भव के आश्रित कर्मों का क्षयोपशम, उपशम या क्षय होता है। इस प्रकार जीवों के द्रव्यादि सामग्री के योग से बंधे हुए कर्म अपने आप फल देते हैं। उन कर्मों के आठ भेद हैं; वे इस प्रकार हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र, और अंतराय।।
जैसे किसी आंख वाले मनुष्य के आँखों पर पट्टी बांध दी गई हो तो उसे आँखें होते हुए भी नही दीखता; इसी तरह जीव का सर्वज्ञ के सदश ज्ञान, ज्ञानावरणीयकर्म रूपी पट्टी से ढक जाता है। मति, श्रत, अवधि, मनःपर्याय, और केवलज्ञान; ये पांचों ज्ञान जिससे रुक जायें, वह ज्ञानावरणीय कर्म कहलाता है। पांच प्रकार की निद्रा एवं चार प्रकार के दर्शन को रोकने वाला दर्शनावरणीय कर्म का उदय है। जैसे स्वामी के दर्शन चाहने वाले को द्वारपाल रोक देता है। इस कारण वह दर्शन नहीं कर सकता। वैसे ही दर्शनावरणीय कर्म के उदय से जीव अपने आप को नहीं देख सकता। वेदनीय कर्म का स्वभाव शहद लपेटी हुई तलवार की धार के समान है, सुख-दुःख का अनुभव कराने वाला वेदनीय | कर्म है। शहद का स्वाद मधुर लगता है; परंतु उसे चाटने पर धार से जीभ कट जाती है, तब दुःख का अनुभव होता है। मदिरापान के समान मोहनीय कर्म है। इससे मढ बना हआ आत्मा कार्याकार्य के विवेक को भल जाता दो प्रकार का है-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय, इससे सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र दब जाते हैं। आयुष्यकर्म | कारागार के समान है, देव, मनुष्य, तिथंच और नरक रूप चार प्रकार का आयुष्य है, वह बेड़ी के समान है। यह प्रत्येक जीव को अपने स्थान में रोके रखता है। आयुष्य पूर्ण किये बिना उन उन योनियों से जीव छूट नही सकता। चित्रकार
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