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रूपातीत ध्यान का स्वरूप, धर्मध्यान के भेद
योगशास्त्र दशम प्रकाश श्लोक ८ से ११ अर्थ :- १. आज्ञा-विचय, २. अपाय-विचय, ३. विपाक-विचय, और ४. संस्थान-विचय का चिंतन करने से
ध्येय के भेद से धर्मध्यान के चार भेद होते हैं ॥७॥ प्रथम आज्ञा-विचय ध्यान के संबंध में कहते हैं1८७६। आज्ञां यत्र पुरस्कृत्य (समाश्रित्य), सर्वज्ञानामबाधिताम् । तत्त्वतश्चिन्तयेदर्थान्, तदाज्ञा-ध्यानमुच्यते ॥८॥ अर्थ - सर्वज्ञों = प्रामाणिक आप्त पुरुषों की, किसी भी तर्क से अबाधित, पूर्वापर वचनों में परस्पर अविरुद्ध,
अन्य किसी भी दर्शन से अकाट्य, आज्ञा अर्थात्-सर्वज्ञ-प्ररूपित द्वादशांगी रूपी प्रवचन, को सामने
रखकर जीवादि पदार्थों का तत्त्वतः (यथार्थ) चिंतन करना, आज्ञाध्यान कहलाता है ।।८।। आज्ञा का अबाधित्व किस तरह है? उसका विचार करते हैं।८७७। सर्वज्ञ वचनं सूक्ष्मं, हन्यते यत्र हेतुभिः । तदाज्ञारूपमादेयं, न मृषाभाषिणो जिनाः ॥९॥ अर्थ :- सर्वज्ञ भगवान् के वचन ऐसे सूक्ष्मता स्पर्शी होते हैं कि वे किसी हेतु या युक्ति से खंडित नहीं हो सकते।
अतः सर्वज्ञ भगवान् के आज्ञा रूपी वचन स्वीकार करने चाहिए। क्योंकि सर्वज्ञभगवान् कभी असत्य
वचन नहीं कहते ।।९।। व्याख्या :- इस विषय से संबंधित आंतर-श्लोकों का भावार्थ कहते हैं-आप्त अर्थात् पक्षपात-रहित प्रामाणिक पुरुष के वचन आप्तवचन कहलाते हैं। वे दो प्रकार के हैं-प्रथम आगमवचन, दूसरा हेतु-युक्तिवाद-वचन। शब्दों से ही पदों और उसके अर्थो का स्वीकार करना आगमवचन है. और दूसरे प्रमाणों, हेतुओं, और युक्तियों की समानता या सहायता से पदार्थों की सत्यता स्वीकार करना हेतुवाद कहलाता है। ये दोनों निर्दोष (एक समान) हों, वे ही प्र प्रमाणभूत माने जाते हैं। क्योंकि जिसका कारण और परिणाम निर्दोष हो, वही प्रमाण माना गया है। राग-द्वेष, मोह आदि दोष कहलाते हैं और अरिहंत परमात्मा में वे दोष नहीं होते। इसलिए निर्दोष पुरुष से उत्पन्न वचन होने से अरिहंत परमात्मा के वचन प्रमाणभूत गिने जाते है। नय और प्रमाण से सिद्ध, पूर्वापर विरोध से रहित, किसी भी तर्क से अबाधित अन्य दर्शनों या बलवान शासकों द्वारा जिसका प्रतिकार न किया जा सके, ऐसा आगम अंग, उपांग, प्रकीर्णक, मूल, छेद आदि
अनेक भेद रूपी नदियों का समागम-स्थान रूप समुद्र-समान है तथा अतिशयज्ञान रूपी महासाम्राज्य-लक्ष्मी से विभूषित है, दूर भव्य के लिए इसकी उपलब्धि अत्यंत दुर्लभ है। परंतु भव्य आत्मा के लिए अत्यंत सुलभ है। मनुष्यों
और देवताओं द्वारा सदा प्रशंसित स्तुति कृत गणिपिटक रूप हैं। वह आगम द्रव्य से नित्य और पर्याय से अनित्य है, स्व स्वरूप में सत् और पर स्वरूप में असत् पदार्थो की प्रतीति कराने वाला है। उसके आधार पर स्याद्वाद-न्याय योग से आज्ञा का आलम्वन लेकर पदार्थ का चिंतन करना, आज्ञाविचय नामक धर्मध्यान कहलाता है ।।९।।
अब अपायविचय ध्यान के बारे में कहते हैं।८७८। रागद्वेष-कषायाद्यैः, जायमानान् विचिन्तयेत्। यत्रापायांस्तदपायविचय-ध्यानमिष्यते ॥१०॥ अर्थ :- ध्यान में उत्पन्न होने वाले राग, द्वेष, क्रोधादि कषाय, विषयविकार आदि पापस्थानों और तज्जनित दुःख,
क्लेश, दुर्गति आदि का चिंतन करना, 'अपाय-विचय' धर्म-ध्यान कहलाता है ॥१०॥ इसका फल कहते हैं।८७९। ऐहिकामुष्मिकापाय-परिहारपरायणः । ततः प्रतिनिवर्तेत, समन्तात् पापकर्मणः ॥११॥ अर्थ :- राग, द्वेषादि से उत्पन्न होने वाले चार गति-संबंधी दुःखों का विचार करने से ध्याता इस लोक और
परलोक के दुःखदायी कष्टों का परिहार करने के लिए तत्पर हो जाता है, और इससे वह सब प्रकार के
- पापकर्मो से निवृत्त हो जाता है ।।११।। व्याख्या :- इस संबंध में प्रयुक्त आंतरश्लोकों का भावार्थ कहते हैं-जिसने श्रीवीतराग परमात्मा के मार्ग को स्पर्श नहीं किया, परमात्मा का स्वरूप नहीं जाना, निर्वृत्ति-मार्ग के परमकारण रूपी साधुमार्ग का सेवन नहीं किया, उस जीव को हजारों प्रकार की आपत्तियाँ आती हैं। इस दुनियां की माया और मोहांधकार में जिसका मन पराधीन बना हुआ है, वह कौन-सा पाप नहीं करता? कौन-सा कष्ट सहन नहीं करता? अर्थात् सभी पाप करता है और सभी प्रकार के दुःख
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