Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 460
________________ रुपस्थ ध्यान का स्वरूप योगशास्त्र अष्टम प्रकाश श्लोक १३ से १६ अर्थ :- रूपस्थध्यान का अभ्यास करने से तन्मयता-प्राप्त योगी अपने आप को स्पष्ट रूप से सर्वज्ञ के समान देखने लगता है। जो सर्वज्ञ भगवान है, निस्सन्देह वही मैं हूं।' इस प्रकार सर्वज्ञ-भगवान् में तन्मयता __ हो जाने से, वह योगी सर्वज्ञ माना जाता है ॥१२-१३।। वह किस तरह? उसे कहते हैं||८६५। वीतरागो विमुच्येत, वीतरागं विचिन्तयन् । रागिणं तु समालम्ब्य, रागी स्यात् क्षोभणादिकृत् ।।१३।। अर्थ :- श्री वीतरागदेव का ध्यान करने वाला स्वयं वीतराग होकर कर्मों या वासनाओं से मुक्त हो जाता है। इसके आलंबन लेने वाला या ध्यान करने वाला काम, क्रोध, हर्ष, विषाद, राग-द्वेषादि दोष प्राप्त करके स्वयं सरागी बन जाता है ।।१४।। कहा भी है।८६६। येन येन हि भावेन, युज्यते यन्त्रवाहकः । तेन तन्मयतां याति, विश्वरूपो मणिर्यथा ॥१४॥ - अर्थ :- स्फटिकरत्न के पास जिस रंग की वस्तु रख दी जाती वह रत्न उसी रंग का दिखायी देने लगता है। इसी प्रकार स्फटिक के समान अपना निर्मल आत्मा, जिस-जिस भाव का आलम्बन ग्रहण करता है, उस उस . भाव की तन्मयता वाला बन जाता है ॥१५॥ ___ इस प्रकार सध्यान का प्रतिपादन करके अब असद्-ध्यान छोड़ने के लिए कहते हैं|1८६७। नासध्यानानि सेव्यानि, कौतुकेनापि किन्त्विह । स्वनाशायैव जायन्ते, सेव्यमानानि तानि यत् ।।१५।। ____ अर्थ :- अपनी इच्छा न हो तो कुतूहल से भी असद्ध्यान का सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसका सेवन करने से अपनी आत्मा का विनाश ही होता है। वह किस तरह? ॥१६॥ |1८६८। सिध्यन्ति सिद्धयः सर्वाः, स्वयं मोक्षावलम्बिनाम् । सन्दिग्धा सिद्धिरन्येषां स्वार्थभ्रंशस्तु निश्चितः।।१६।। अर्थ :- मोक्षावलंबी योगियों को स्वतः ही सभी (अष्ट) महासिद्धियाँ सिद्ध उपलब्ध हो जाती है और परंपरा से स्वतः सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त हो जाती है। किन्तु संसारसुख के अभिलाषियों को सिद्धि की प्राप्ति संदिग्ध है, क्योंकि इष्ट लाभ मिले या न मिले, परंतु (आत्महित से) स्वार्थभ्रष्टता तो अवश्य होती है। । इस प्रकार परमार्हत् श्रीकुमारपाल राजा की जिज्ञासा से आचार्यश्री हेमचन्द्राचार्यसूरीश्वर रचित अध्यात्मोपनिषद् नामक पट्टबद्ध अपरनाम योगशाख का खोपज्ञायिवरणसहित नयम प्रकाश संपूर्ण हुआ । 439

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