Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 464
________________ धर्मध्यान का स्वरूप योगशास्त्र दशम प्रकाश श्लोक १४ से १९ द्वारा निर्मित विविध प्रकार के चित्र के समान नामकर्म है। यह जीव को शरीर में गति, जाति, संस्थान-संघयण आदि | अनेक विचित्रताएँ प्राप्त कराता है। घी और मधु भरने के लिए घड़े बनाने वाले कुंभार के समान उच्चगोत्र और नीचगोत्र है। इससे उच्चकुल और नीचकुल में जन्म लेना पड़ता है। अंतरायकर्म दुष्ट भंडारी के सदृश है, वह दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य आदि लब्धियों को रोक देता है। इस प्रकार कर्म की मूल आठ प्रकृतियों के अनेक विपाकों का चिंतन करना विपाक-विचय धर्मध्यान कहलाता है ।।१२-१३।। . अब संस्थान-विचय धर्मध्यान का स्वरूप कहते हैं।८८२। अनाद्यन्तस्य लोकस्य स्थित्युत्पत्ति-व्ययात्मनः । आकृति चिंतयेद् यत्र संस्थान-विचयः स तु।।१४।। अर्थ :- अनादि-अनंत परंतु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वरूप द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-स्वरूप लोक की आकृति का विचार करना, संस्थान-विचय धर्मध्यान कहलाता है ॥१४॥ अब लोक-ध्यान का फल कहते हैं।८८३। नानाद्रव्यगतानन्त-पर्यायपरिवर्तनात् । सदा सक्तं मनो नैव, रागाद्याकुलतां व्रजेत् ॥१५॥ अर्थ :- लोक में अनेक द्रव्य हैं, और एक-एक द्रव्य के अनंत-अनंत पर्याय हैं, उनका परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार द्रव्यों का बार-बार चिंतन करने से मन में आकुलता नहीं होती तथा रागद्वेष आदि नहीं होते।।१५।। व्याख्या :- इस संबंध में प्रस्तुत आंतरश्लोकों का भावार्थ कहते हैं-पहले अनित्यादि-भावना के प्रसंग में तथा लोकभावना में संस्थान-विचय' के विषय का वर्णन बहुत विस्तार से कह चुके हैं, इसलिए पुनरुक्तिदोष के भय से यहां पर विशेष वर्णन करने की आवश्यकता नहीं समझते। यहां प्रश्न होता है कि लोक-भावना और संस्थानविचय में क्या अंतर है; जिससे दोनों को अलग बतलाया है? इसका उत्तर देते है कि लोकभावना तो केवल विचार करने के लिए है, जबकि संस्थानविचय में लोकादि में मति स्थिर-स्वरूप रहती है। इसी कारण उसे 'संस्थानविचय' धर्मध्यान कहा है।।१५।। अब धर्मध्यान का स्वरूप और विशेषता बताते हैं1८८४धर्मध्याने भवेद् भावः, क्षायोपशमिकादिकः । लेश्याः क्रमविशुद्धाः स्युः, पीत-पद्म-सिताः पुनः।।१६।। अर्थ :- जब धर्मध्यान में प्रवृत्ति होती है, तब आत्म स्वरूप क्षायोपशमिक आदि भाव होते हैं। आदि शब्द कहने से औपशमिक और क्षायिक भाव होते हैं, किन्तु पौद्गलिक रूप औदयिक भाव नहीं होता। कहा है कि 'अप्रमत्त संयत, उपशांतकषाय और क्षीणकषाय गुणस्थान वालों को धर्मध्यान होता है।' धर्मध्यान के समय में क्रमशः विशुद्ध तीन लेश्याएं होती हैं। वह इस प्रकार-पीतलेश्या, (तेजो लेश्या) इससे अधिक निर्मल पद्मलेश्या और इससे भी अत्यंत विशुद्ध शुक्ललेश्या ।।१६।। चारों धर्मध्यानों का फल कहते हैं।८८५। अस्मिन् नितान्त-वैराग्य-व्यतिषङ्गतरङ्गिते । जायते देहिनां सौख्यं, स्वसंवेद्यमतीन्द्रियम् ॥१७।। अर्थ :- अत्यंत वैराग्यरस से परिपूर्ण धर्मध्यान में जब आत्मा एकाग्र हो जाता है, तब जीव को इन्द्रियों से अगम्य आत्मिक सुख का अनुभव होता है। कहा है कि 'विषयों में अनासक्ति, आरोग्य, अनिष्ठुरता, कोमलता, करुणा, शुभगंध, तथा मूत्र और पुरीष की अल्पता हो जाती है। शरीर की कांति, मुख की प्रसन्नता, स्वर में सौम्यता इत्यादि विशेषताएँ योगी की प्रवृत्ति के प्रारंभिक फल का चिह्न समझना चाहिए।।१७।। अब चार श्लोकों से पारलौकिक फल कहते हैं।८८६। त्यक्तसङ्गास्तनुं त्यक्त्वा, धर्मध्यानेन योगिनः । ग्रैवेयकादि स्वर्गेषु, भवन्ति त्रिदशोत्तमाः ॥१८।। ।८८७। महामहिमसौभाग्यं, शरच्चन्द्रनिभप्रभम् । प्राप्नुवन्ति वपुस्तत्र, स्रग्भूषाम्बर-भूषितम् ॥१९।। 443

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