Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 468
________________ शुक्लध्यान का स्वरूप योगशास्त्र एकादशम प्रकाश श्लोक ८ से १२ ||९००। निर्वाणगमनसमये, केवलिनो दरनिरुद्धयोगस्य । सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, तृतीयं कीर्तितं शुक्लम् ॥८॥ अर्थ :- मोक्ष जाने का समय अत्यंत निकट आ जाने पर केवली भगवान् मन, वचन, और काया के स्थूलयोगों का निरोध कर लेते हैं; केवल श्वासोच्छ्वास आदि की सूक्ष्मक्रिया रहती है। इसमें सूक्ष्मक्रिया मिटकर कभी स्थूल नहीं होती; इसलिए इसका नाम 'सूक्ष्म-क्रिया-अप्रतिपाति' शुक्लध्यान कहलाता है।।८।। इस ध्यान में आत्मा लेश्या और योग से रहित बन जाता है, आत्मा शरीर-प्रवृत्ति से अलग हो जाता है। अब व्युपरतक्रियानिवर्ति नाम का चौथा भेद बताते हैं।९०१। केवलिनः शैलेशीगतस्य शैलवदकम्पनीयस्य । उत्सन्नक्रियमप्रतिपाति, तुरीयं परमशुक्लम् ॥९॥ अर्थ :- मेरुपर्वत के समान निश्चल केवली भगवान् जब शैलेशीकरण में रहते हैं, तब उत्पन्नक्रियाऽप्रतिपाति नामक चौथा शुक्लध्यान होता है, इसी का दूसरा नाम व्युपरतक्रिया-अनिवृत्ति है ॥९॥ अब इन चारों भेदों में योग की मात्रा बताते हैं।९०२। एक-त्रियोगभाजामाद्यं, स्यादपरमेकयोगानाम् । तनुयोगिनां तृतीयं, निर्योगाणां चतुर्थं तु ॥१०॥ अर्थ :- प्रथम शुक्लध्यान एक योग या तीनों योग वाले मुनियों को होता है, दूसरा ध्यान एक योग वाले को होता है, तीसरा सूक्ष्मकाययोग वाले केवलियों को और चौथा अयोगी केवलियों को ही होता है।॥१०॥ व्याख्या :- पहला पृथक्त्व-वितर्क-सविचार नामक शुक्लध्यान भांगिक श्रुत पढ़े हुए और मन आदि एक योग अथवा तीनों योग वाले मुनियों को होता है। दूसरा एकत्व-वितर्क-अविचार ध्यान मन आदि योगों में से किसी भी एक योग वाले मुनि को होता है, इस योग में संक्रमण (प्रवेश-निष्क्रमण) का अभाव होता है। तीसरे सूक्ष्मक्रिया-अनिवृत्ति ध्यान में सूक्ष्मकाया का योग होता है, परंतु शेष वचनयोग और मनोयोग नहीं होता है। और चौथा व्युत्सन्नक्रियाऽप्रतिपाति ध्यान योग-रहित अयोगी केवली को शैलेशीकरण अवस्था में होता है। मन, वचन, काया के भेद से योग तीन प्रकार का होता है। उसमें औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर वाले जीव को वीर्य परिणति-विशेष काययोग होता है। औदारिक, वैक्रिय, आहारक शरीर की व्यापार-क्रिया से ग्रहण किये हुएभाषावर्गणा पुद्गल-द्रव्य-समूह की सहायता से जीव का व्यापार, वचनयोग होता है। वही औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर की व्यापारक्रिया से ग्रहण किये हुए मनोवर्गणा के द्रव्यों की मदद से जीव का व्यापार, मनोयोग होता है।' यहाँ प्रश्न होता है कि 'शुक्लध्यान के अंतिम दो भेदों में मन नहीं होता है। क्योंकि केवली भगवान् मनोयोगरहित होते हैं, और ध्यान तो मन की स्थिरता से होता है, तो इसे ध्यान कैसे कहा जा सकता है? ॥१०।। इसका समाधान करते हैं।९०३। छद्मस्थितस्य यद्वन्मनः स्थिरं ध्यानमुच्यते तज्ज्ञैः ।निश्चलमङ्गं तद्वत् केवलिनां कीर्तितं ध्यानम् ॥११॥ अर्थ :- ज्ञानियों ने जैसे छद्मस्थ साधक के मन की स्थिरता को ध्यान कहा है, उसी प्रकार केवलियों के काया की स्थिरता को भी वे ध्यान कहते हैं। जैसे मनोयोग है, उसी प्रकार काया भी एक योग है। कायायोगत्व का अर्थ ध्यानशब्द से भी होता है ॥११॥ यहाँ फिर प्रश्न होता है कि 'चौथे शुक्लध्यान में तो काययोग का निरोध किया जाता है इसलिए उसमें तो काययोग भी नहीं होता तो फिर ध्यानशब्द से उसका निर्देश कैसे कर सकते हैं? इसका उत्तर देते हैं।९०४। पूर्वाभ्यासात्, जीवोपयोगतः कर्मजरणहेतोर्वा । शब्दार्थबहुत्वाद्वा जिनवचनाद्वाऽप्ययोगिनो ध्यानम्।।१२।। अर्थ :- पूर्वकालिक अभ्यास से जीव के उपयोग से कर्मनिर्जरा होती है, इस कारण से; अथवा शब्दार्थ की बहुलता या श्री जिनेश्वर के वचन से इसे अयोगियों का ध्यान कह सकते हैं ॥१२॥ व्याख्या : जैसे कुंभार का चाक डंडे आदि के अभाव में भी पूर्वाभ्यास से घूमता रहता है, उसी प्रकार मन आदि समस्त योगों के बंद होने पर भी अयोगियों के पूर्व-अभ्यास से ध्यान होता है। यद्यपि द्रव्य से उनके योग नहीं होते हैं, फिर भी जीव के उपयोग रूप भावमन का सद्भाव होता है, अतः इसे योगियों का ध्यान कहा है अथवा ध्यानकार्य का फल कर्म-निर्जरा है और उसका हेतु ध्यान है। जैसे कि पुत्र न होने पर भी जो लड़का पुत्र के योग्य व्यवहार करता 447

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