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शुक्लध्यान का स्वरूप
योगशास्त्र एकादशम प्रकाश श्लोक ४० से ५१ वाणव्यंतर; ये चारों निकायों के देव समवसरण में भगवान् के पास जघन्य-से एक करोड़ की संख्या |
में रहते हैं ।।४१-४७।। इस प्रकार केवलज्ञानी तीर्थकर भगवान् के अतिशयों का स्वरूप बताया। अब सामान्य केवलियों का स्वरूप बताते हैं।९४०। तीर्थकरनामसझं, न यस्य कर्मास्ति सोऽपि योगबलात् । उत्पन्न-केवलः सन् सत्यायुषि बोधयत्युर्वीम् ।।४८।। अर्थ :- जिनके तीर्थकर नामकर्म का उदय नहीं है, वे केवलज्ञानी भी योग के बल से केवलज्ञान प्राप्त करते हैं,
और आयुकर्म शेष रहता है, तो जगत के जीवों को धर्मोपदेश भी देते हैं; और आयुकर्म शेष न हो तो
निर्वाणपद प्राप्त करते हैं ।।४।। इसके बाद उत्तरक्रिया का वर्णन करते हैं१९४१। सम्पन्नकेवलज्ञान-दर्शनोऽन्तर्मुहूर्त-शेषायुः । अर्हति योगी ध्यानं, तृतीयमपि कर्तुमचिरेण ॥४९।। अर्थ :- केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होने के बाद जब योगी का आयुष्य अंत मुहूर्त शेष रहता है, तब वे
शीघ्र ही सूक्ष्म-क्रिया-अप्रतिपाति नामक तीसरा शुक्लध्यान प्रारंभ करते हैं ॥४९।।
हूर्त का अर्थ है-मुहर्त के अंदर का समय। क्या सभी योगी एक समान तीसरा ध्यान आरंभ करते हैं या उनमें कुछ विशेषता है? इसे बताते हैं।९४२। आयुःकर्मसकाशाद्, अधिकानि स्युर्यदाऽन्यकर्माणि । तत्साम्याय तदोपक्रमेत योगी समुद्घातम् ॥५०॥ ___ अर्थ :- यदि आयुष्य-कर्म की अपेक्षा अन्य नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की स्थिति अधिक रह जाती है तो
उसे बराबर करने के लिए योगी केवली-समुद्घात करते हैं ॥५०॥ व्याख्या :- जितना आयुष्यकर्म हो, उतनी ही शेष कर्म की स्थिति हो तो तीसरा ध्यान प्रारंभ करते हैं, परंतु आयुष्यकर्म से दूसरे कर्मों की स्थिति अधिक हो, तब स्थितिघात, रसघात आदि के लिए समुदघात नाम का प्रयत्नविशेष करते हैं। कहा भी हैं-'यदि केवली भगवान् के दूसरे कर्म आयुष्यकर्म से अधिक शेष हों तो वे उन्हें समान करने की इच्छा से केवली-समुद्घात नामक प्रयत्न करते हैं।' समुद्घात का अर्थ है-जिस क्रिया से एक ही बार में सम्यक् प्रकार से प्रादुर्भाव हो, दूसरी बार न हो, इस प्रकार प्रबलता से घात करना=आत्म-प्रदेश को शरीर से बाहर निकालना।।५०।। समुद्घात की विधि आगे बताते हैं।९४३। दण्ड-कपाटे मंथानकं च समयत्रयेण निर्माय । तुर्ये समये लोकं, निःशेषं पुरयेद् योगी ॥५१।। अर्थ :- योगी तीन समय में दंड, कपाट और मंथानी बनाकर अपने आत्मप्रदेशों को फैला देता है, और चौथे
समय में बीच के अंतरों को पूरित कर समग्र लोक में व्याप्त हो जाता है ॥५१।। व्याख्या :- ध्यानस्थ केवली भगवान् ध्यान के बल से अपने आत्मप्रदेशों को शरीर के बाहर निकालते हैं। अर्थात् प्रथम समय में आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालकर ऊपर-नीचे लोकांत तक उन्हें लोक प्रमाण दंडाकार कर लेते हैं। दूसरे समय में उस दंडाकार में से कपाट के समान आकार बना लेते हैं। अर्थात् आत्म-प्रदेशों को आगे-पीछे लोक में इस प्रकार फैलाते है कि जिससे पूर्व-पश्चिम अथवा उत्तर-दक्षिण दिशा में कपाट के समान बन जाते है। तीसरे समय में उस कपाट को मथानी के आकार का बनाकर फैलाते हैं. इससे अधिकतर लोक परिपरित हो जाता है। चौथे समय में योगी बीच के अंतरों (खाली-स्थानों) को पूरित कर चौदह राजूलोक में व्याप्त हो जाता है। इस तरह लोक को परिपूरित करते हुए अनुश्रेणी तक गमन होने से लोक के कोणों में भी आत्मप्रदेश पूरित हो जाते हैं। अर्थात् चार समयों में समग्र लोकाकाश को अपने आत्मप्रदेशों से पूर्ण कर देते हैं। जितने आत्मप्रदेश होते हैं, उतने ही लोकाकाश के प्रदेश हो जाते हैं। अतः प्रत्येक आकाशप्रदेश में एक-एक आत्मप्रदेश व्याप्त हो जाता है। इसे 'लोकपूरक' कहा ऐसा सुनकर दूसरे दार्शनिक जो आत्मा को विभु अर्थात् सर्वव्यापी मानते हैं, उनके मत के साथ भी संगति हो जाती है। इसका मतलब
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