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।। ॐ अर्हते नमः ।।
६. षष्ठम प्रकाश "परकाय-प्रवेश पारमार्थिक नहीं" ।७३६। इह चायं परपुर-प्रवेशश्चित्रमात्रकृत् । सिद्ध्येन्न वा प्रयासेन, कालेन महताऽपि हि ॥१॥
७३७। जित्वाऽपि पवनं नानाकरणैः क्लेशकारणैः । नाडी-प्रचारमायत्तं, विधायाऽपि वपुर्गतम् ।।२।। ।७३८। अश्रद्धेयं परपुरे, साधयित्वाऽपि सङ्क्रमम्। विज्ञानैकप्रसक्तस्य, मोक्षमार्गो न सिध्यति ॥३॥ अर्थ :- यहां पर परकाया में प्रवेश करने की जो विधि कही है, वह केवल आश्चर्य-(कुतूहल) जनक ही है,
उसमें अंशमात्र भी परमार्थ नहीं है और उसकी सिद्धि भी बहुत लंबे काल तक महान् प्रयास करने से होती है और कदाचित् नहीं भी होती। इसलिए मुक्ति के अभिलाषी को ऐसा प्रयास करना उचित नहीं है। क्लेश के कारणभूत अनेक प्रकार के आसनों आदि से शरीर में रहे हुए वायु को जीतकर भी, शरीर के अंतर्गत नाड़ी-संचार को अपने अधीन करके भी और जिस पर दूसरे श्रद्धा भी नहीं कर सकते हैं, उस परकाया-प्रवेश में सिद्धि प्राप्त करने की कार्यसिद्धि करके जो पापयुक्त-विज्ञान
में आसक्त रहता है, वह मोक्षमार्ग सिद्ध नहीं कर सकता है ॥१-३।। कितने ही आचार्य प्राणायाम से ध्यान की सिद्धि मानते हैं, ऐसी पूर्वकथित बात को दो श्लोकों द्वारा खंडन करते हैं१७३९। तन्नाप्नोति मनः-स्वास्थ्यं, प्राणायामैः कदर्थितम्। प्राणस्यायमने पीड़ा, तस्यां स्यात् चित्तविप्लवः।।४।। |७४०। पूरणे कुम्भने चैव, रेचने च परिश्रमः । चित-सङ्क्लेश करणात्, मुक्तेः प्रत्यूहकारणम् ।।५।। अर्थ :- प्राणायाम से पीड़ित मन स्वस्थ नहीं हो सकता; क्योंकि प्राण का निग्रह करने से शरीर में पीड़ा
होती है। पूरक, कुंभक और रेचक-क्रिया करने में परिश्रम करना पड़ता है। परिश्रम करने से मन में सङ्क्लेश होता है। अतः चित्त में सङ्क्लेश कारक होने से प्राणायाम मुक्ति में विघ्नकारक
है।।४-५॥ व्याख्या :- यहां शंका होती है कि-प्राणायाम करने से शरीर में पीड़ा और मन में चपलता उत्पन्न होती है तो दूसरा कौन-सा मार्ग है, जिससे शरीर में पीड़ा और मन में चपलता न हो? इसका उत्तर देते हैं कि 'प्राणायाम के पश्चात् कितने ही आचार्य प्रत्याहार बतलाते हैं; वह दूषित नहीं है ।।४-५।। उसे कहते हैं१७४१। इन्द्रियैः सममाकृष्य, विषयेभ्यः प्रशान्तधीः । धर्मध्यानकृते तस्मात् मनः कुर्वीत निश्चलम् ॥६॥ अर्थ :- प्रशांत-बुद्धि साधक शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श रूप पांचों विषयों से इंद्रियों के साथ मन को
हटाकर धर्मध्यान के लिए अपने मन को निश्चल करे ।।६।। व्याख्या :- बाह्य विषयों से इंद्रियों के साथ मन को हटा लेना प्रत्याहार कहलाता है। अभिधान चिंतामणिकोश में हमने बताया है-प्रत्याहारस्त्विन्द्रियाणां विषयेभ्यः समाहृतिः। अर्थात् नेत्रादि इंद्रियों को रूप आदि विषयों से हटाना प्रत्याहार कहलाता है। मन को निश्चल बनाने की बात प्रत्याहार के बाद धारणा बताने का उपक्रम करने हेतु कही है।।६।।
अब धारणा के स्थान बताते हैं
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