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पदस्थ ध्यान का स्वरूप
योगशास्त्र अष्टम प्रकाश श्लोक २९ से ३७
अर्थ
।८००। तथा हृत्पद्ममध्यस्थं, शब्दब्रह्मैककारणम् । स्वरव्यञ्जनसंवीतं वाचकं परमेष्ठिनः ॥ २९ ॥ ।८०१ । मूर्धसंस्थित-शीतांशु - कलामृतरसप्लुतम् । कुम्भकेन महामन्त्रं, प्रणवं परिचिन्तयेत् ||३०|| :- तथा हृदयकमल के मध्य में स्थित (वचन - विलास स्वरूप) शब्द - ब्रह्म की उत्पत्ति के एकमात्र कारण, स्वर और व्यंजनों से युक्त पंचपरमेष्ठी के वाचक एवं मस्तक में स्थित चंद्रकला से निकलते हुए अमृतरस से तरबतर महामंत्र ॐकार (प्रणव) का कुंभक ( श्वासोच्छ्वास को रोक) करके ध्यान करना चाहिए ।। २९-३०।
ध्येयतत्त्व के दूसरे भेद कहते हैं
अर्थ :
| | ८०२ । पीत स्तम्भेऽरुणं वश्ये, क्षोभणे विद्रुमप्रभम् । कृष्ण विद्वेषणे ध्यायेत्, कर्मघाते शशिप्रभम् ||३१|| स्तंभन कार्य करने में पीले ॐकार का, वशीकरण में लाल वर्ण का, क्षोभणकार्य में मूंगे के रंग का, विद्वेषण-कार्य में काले वर्ण का और कर्मों का नाश करने के लिए चंद्रमा के समान उज्ज्वल श्वेत-वर्ण के ॐकार का ध्यान करना चाहिए ||३१ ।।
भावार्थ :- यद्यपि कर्मक्षय के अभिलाषी को चंद्रकांति के समान उज्ज्वल ॐ (प्रणव) का ध्यान करना ही योग्य है, तथापि किसी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप विभिन्न परिस्थितियों में पीत आदि का ध्यान भी उपकारी हो सकता है। इसलिए यहां 'ॐ' के ध्यान का विधान किया है ।। ३१ ।।
अन्य प्रकार से पदमयी देवता की ध्यानविधि कहते हैं
।८०३। तथा पुण्यतमं मन्त्रं जगत् त्रितयपावनम् । योगी पञ्चपरमेष्ठि- नमस्कारं विचिन्तयेत् ॥३२॥ अर्थ :- तथा तीन जगत् को पवित्र करने वाले महान् पुण्यतम पंचपरमेष्ठि- नमस्कार मंत्र का ध्यान ही विशेष रूप से योगी को करना चाहिए ||३२||
वह इस प्रकार किया जा सकता है
||८०४ अष्टपत्रे सिताम्भोजे, कर्णिकायां कृतस्थितिम् । आद्यं सप्ताक्षरं मन्त्रं पवित्रं चिन्तयेत् ततः॥३३॥ अर्थ :- आठ पंखुडी वाले सफेद कमल का चिंतन करके उसकी कर्णिका में स्थित सात अक्षर वाले पवित्र 'नमो अरिहंताणं' मंत्र का चिंतन करना चाहिए ||३३||
||८०५ | सिद्धादिकचतुष्कं च, दिक्पत्रेषु यथाक्रमम् । चूला - पादचतुष्कं च विदिक्पत्रेषु चिन्तयेत् ||३४||
अर्थ :- फिर सिद्धादिक चार मंत्रपदों का अनुक्रम से चार दिशाओं की पंखुडियों में और चूलिकाओं के चार पदों का विदिशा की पंखुड़ियों में चिंतन करना चाहिए ||३४||
भावार्थ :- पूर्वदिशा में नमो सिद्धाणं, दक्षिण दिशा में नमो आयरियाणं, पश्चिम दिशा में नमो उवज्झायाणं और | उत्तरदिशा में नमो लोए सव्वसाहूणं का चिंतन करना चाहिए तथा विदिशा की चार पंखुडियों में अग्निकोण में एसो पंच नमुक्कारो, नैऋत्यकोण में सव्वपावप्पणासणो, वायव्यकोण में मंगलाणं च सव्वेर्सि और ईशानकोण में पढमं हवइ मंगलं; | इस प्रकार पंचपरमेष्ठिनमस्कारमंत्र का ध्यान करना चाहिए ||३४।।
अब मंत्र के चिंतन का फल बताते हैं
अर्थ :
।८०६। त्रिशुद्ध्या चिन्तयंस्तस्य, शतमष्टोत्तरं मुनिः । भुञ्जानोऽपि लभेतैव, चतुर्थतपसः फलम् ||३५|| मन, वचन और काया की शुद्धिपूर्वक एकाग्रता से एकसौ आठ बार इस महामंत्र नमस्कार का जाप करने वाला मुनि आहार करता हुआ भी एक उपवास का फल प्राप्त करता है ।। ३५ ।। |८०७। एनमेव महामन्त्रं, समाराध्येह योगिनः । त्रिलोक्येऽपि महीयन्तेऽधिगताः परमां श्रियम् ॥३६॥ ।८०८। कृत्वा पापसहस्राणि हत्वा जन्तुशतानि च । अमुं मन्त्रं समाराध्य, तिर्यञ्चोऽपि दिवं गताः ||३७||
अर्थ :- योगीपुरुष इसी महामंत्र की यहां अच्छी तरह आराधना करके श्रेष्ठ आत्मलक्ष्मी के अधिकारी बनकर
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