Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 456
________________ पदस्थ ध्यान का स्वरूप योगशास्त्र अष्टम प्रकाश श्लोक ५७ से ६५ ||८२८। शशिबिम्बादिवोद्भूतां, स्रवन्तीममृतं सदा । विद्यां 'क्ष्वी' इति भालस्थां, ध्यायेत्कल्याणकारणम्।।५७।। अर्थ :- मानो चंद्र के बिम्ब से समुत्पन्न हुई हो, ऐसी सदा उज्ज्वल अमृतवर्षिणी 'क्ष्वी नाम की विद्या को अपने ललाट में स्थापन करके साधक को कल्याण के लिए उसका ध्यान करना चाहिए ।।५७।। तथा||८२९। क्षीराम्भोधेर्विनिर्यान्ती, प्लावयन्ती सुधाम्बुभिः । भाले शशिकलां ध्यायेत्, सिद्धिसोपानपद्धतिम्।।५८।। अर्थ :- क्षीरसमुद्र से निकलती हुई एवं सुधा-समान जल से सारे लोक को प्लावित करती हुई सिद्धि रूपी महल के सोपानों की पंक्ति के समान चंद्रकला का ललाट में ध्यान करना चाहिए ॥५८॥ इस ध्यान का फल कहते हैं।८३०। अस्याः स्मरणमात्रेण, त्रुट्यद्भवनिबन्धनः । प्रयाति परमानन्द-कारणं पदमव्ययम् ॥५९।। अर्थ :- इस चंद्रकला का स्मरण करने मात्र से साधक के संसार का कारण रूप जन्म-मरण का बंधन खत्म हो जाता है और वह परमानंद के कारण रूप अव्ययपद-मोक्ष को प्राप्त करता है ।।५९।। ||८३१। नासाग्रे प्रणवः शून्यम् अनाहतमिति त्रयम् । ध्यायन् गुणाष्टकं लब्ध्वा ज्ञानमाप्नोति निर्मलम् ।।६०॥ अर्थ :- नासिका के अग्रभाग पर प्रणव 'ॐ' शून्य '०' और अनाहत 'ह' इन तीन (ॐ, . और ह) का ध्यान करने वाला अणिमादि आठ सिद्धियों को प्राप्त करके निर्मलज्ञान प्राप्त कर लेता है ।।६।। ||८३२। शङ्ख-कुन्द-शशाङ्काभान्, त्रीनमून् ध्यायतः सदा । समग्रविषयज्ञान-प्रागल्भ्यं जायते नृणाम् ॥६१॥ अर्थ :- शंख, कुंद और चंद्र के समान उज्ज्वल प्रणव, शून्य और अनाहत इन तीनों का सदा ध्यान करने वाले पुरुष समस्त विषयों के ज्ञान में पारंगत हो जाता है ।।६१।। तथा।८३३। द्विपाश्वप्रणवद्वन्द्वं प्रान्तयोर्माययावृतम् । 'सोऽहं' मध्ये विमूर्धानं 'अहम्लींकारं' विचिन्तयेत् ॥६२॥ अर्थ :- जिसके दोनों ओर दो-दो ॐकार है, आदि और अंत में (किनारे पर) ह्रींकार है, मध्य में सोऽहं है, उस सोऽहं के मध्य में अम्ली है। अर्थात् 'ह्रीं ॐ ॐ सो अम्लीं हैं ॐॐहीं' इस रूप में इस मंत्र का ध्यान करना चाहिए ॥२॥ | 1८३४। कामधेनुमिवाचिन्त्य-फल-सम्पादन-क्षमाम् । अनवद्यां जपेद्विद्यां गणभृद्-वदनोद्-गताम् ॥६३।। ___ अर्थ :- कामधेनु के समान अचिन्त्य फल देने में समर्थ श्रीगणधर-भगवान् के मुख से निर्गत निर्दोष विद्या का जाप करना चाहिए। वह विद्या इस प्रकार है- 'ॐ जोग्गे मग्गे तच्चे भूए भव्वे भविस्से अन्ते पक्खे जिणपासे स्वाहा' ॥३॥ ।८३५। षट्कोणेऽप्रतिचक्रे, फट् इति प्रत्येकमक्षरम् । सव्ये न्यसेद् ‘विचक्राय स्वाहा' बाह्येऽपसव्यतः ॥६४।। ।८३६। भूतान्तं बिन्दुसंयुक्तं, तन्मध्ये न्यस्य चिन्तयेत् । 'नमो जिणाणं' इत्याद्यैः, 'ॐ' पूर्वेष्टयेद् बहिः॥६५।। अर्थ :- पहले षट्कोण यंत्र का चिंतन करे। उसके प्रत्येक खाने में 'अप्रतिचक्रे फट्' इन छह अक्षरों में से एक एक अक्षर लिखे। इस यंत्र के बाहर उलटे क्रम से 'विचक्राय स्वाहा' इन छह अक्षरों में से एक-एक अक्षर कोनों के पास लिखना, बाद में 'ॐ नमो जिणाणं', ॐ नमो ओहिजिणाणं, ॐ नमो परमोहिजिणाणं, ॐ नमो सव्वोसहिजिणाणं, ॐ नमो अणतोहिबिजाणं, ॐ नमो कोट्ठबुद्धीणं, ॐ नमो बीयबुद्धीणं, ॐ नमो पयाणुसारीणं, ॐ नमो संभिन्नसोआणं, ॐ नमो उज्जुमईणं, ॐ नमो विउलमईणं, ॐ नमो दसपुव्वीणं, ॐ नमो चउदसपुव्वीणं, ॐ नमो अटुंगमहानिमित्त-कुसलाणं, ॐ नमो विउव्वणइड्ढिपत्ताणं, ॐ नमो विज्जाहराणं, ॐ नमो चारणाणं, ॐ नमो पण्णासमणाणं, ॐ नमो आगासगामीणं, ॐ ज्सौं ज्सौं श्रीं ह्रीं धृति-कीर्ति-बुद्धि-लक्ष्मी स्वाहा। इन पदों से पिछले वलय की पूर्ति करे। फिर पंच-परमेष्ठी-महामंत्र के पांच पदों का पांच अंगुलियों में स्थापन करने से सकलीकरण होता है। 'ॐ नमो अरिहंताणं हाँ स्वाहा' अंगूठे में, ॐ नमो सिद्धाणं ह्रीं स्वाहा' तर्जनी में, 'ॐ नमो आयरियाणं हं स्वाहा' मध्यमा में, 435

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