Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 455
________________ पदस्थ ध्यान का स्वरूप योगशास्त्र अष्टम प्रकाश श्लोक ४५ से ५६ ||८१६ । यदीच्छेद् भवदावाग्नेः समुच्छेदं क्षणादपि । स्मरेत् तदाऽऽदिमन्त्रस्त्य, वर्णसप्तकमादिमम् ॥४५॥ यदि संसार रूपी दावानल को क्षणभर में शांत करना चाहते हो तो, तुम्हें प्रथम मंत्र के प्रथम सात अक्षर 'नमो अरिहंताणं' का स्मरण करना चाहिए ||४५ || अर्थ -- अन्य दो मंत्रों का विधान करते हैं ।८१७। पञ्चवर्णं स्मरेन्मन्त्रं कर्मनिर्घातकं तथा । वर्णमालाञ्चितं मन्त्रं ध्यायेत् सर्वाभयप्रदम् ॥४६॥ अर्थ :- आठ कर्मों का नाश करने के लिए पांच अक्षरों वाले 'नमो सिद्धाणं' मंत्र का तथा समस्त प्रकार का अभय प्राप्त करने के लिए वर्णमालाओं से युक्त 'ॐ नमो अर्हते केवलिने परमयोगिने विस्फुरदूरु शुक्लध्यानाग्निनिर्दग्धकर्मबीजाय प्रासानन्तचतुष्टयाय सौम्याय शान्ताय मङ्गलवरदाय अष्टादशदोष-रहिताय स्वाहा' मंत्र का ध्यान करना चाहिए ।। ४६ ।। फल-सहित हीँ कार मंत्र को दस श्लोक से कहते हैं ||८१८ । ध्यायेत् सिताब्जं वक्त्रान्तरष्टवर्गी दलाष्टके । ॐ नमो अरिहंताणं इति वर्णानपि क्रमात् ॥४७॥ ।८१९ । केसराली - स्वरमयीं सुधाबिन्दु - विभूषिताम् । कार्णिकां कर्णिकायां च चन्द्रबिम्बात् समापतत् ॥४८॥ ||८२० | सञ्चरमाणं वक्त्रेण, प्रभामण्डलमध्यगम् । सुधादीधिति-सङ्काशं, मायाबीजं विचिन्तयेत् ॥ ४९ ॥ ८२१ । ततो भ्रमतं पत्रेषु, सञ्चरन्तं नभस्तले । ध्वंसयन्तं मनोध्वान्तं स्रवन्तं च सुधारसम् ||५०|| ८२२ । तालुरन्ध्रेण गच्छन्तं लसन्तं भ्रूलतान्तरे । त्रैलोक्याचिन्त्यमाहात्म्यं, ज्योतिर्मयमिवाद्भुतम् ॥ ५१ ॥ ||८२३ । इत्यमुं ध्यायतो मन्त्रं पुण्यमेकाग्रचेतसः । वाग्मनोमलमुक्तस्य, श्रुतज्ञानं प्रकाशते ॥ ५२ ॥ ८२४ । मासैः षड्भिः कृताभ्यासः, स्थिरीभूतमनास्ततः । निःसरन्तीं मुखाम्भोजात्, शिखां धूमस्य पश्यति ॥५३॥ ८२५ । संवत्सरं कृताभ्यासः, ततो ज्वालां विलोकते । ततः सञ्जातसंवेगः, सर्वज्ञमुखपङ्कजम् ॥५४॥ ८२६ । स्फुरत्कल्याणमाहात्म्यं सम्पन्नातिशयं ततः । भामण्डलगतं साक्षादिव सर्वज्ञमीक्षते ॥५५॥ ८२७। ततः स्थिरीकृतस्वान्तः, तत्र सञ्जातनिश्चयः । मुक्त्वा संसारकान्तारम्, अध्यास्ते सिद्धिमन्दिरम् ||५६ || | अर्थ :- मुख के अंदर आठ पंखुडियों वाले श्वेत-कमल का चिंतन करे और उन पंखुडियों में आठ वर्ग- १. अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लृ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः, २. क, ख, ग, घ, ङ, ३. च, छ, ज, झ, ञ, ४. ट, ठ, ड, ढ, ण, ५. त, थ, द, ध, न, ६. प, फ, ब, भ, म, ७. य, र, ल, व, ८. श, ष, स, ह की क्रमशः स्थापना करना तथा ॐ नमो अरिहंताणं इन आठ अक्षरों में से एक-एक अक्षर को एक-एक पंखुडी पर स्थापित करना । उस कमल की केसरा के चारों तरफ के भागों में अ, आ आदि सोलह स्वर स्थापित करना और मध्य की कर्णिका को चंद्रबिम्ब से गिरते हुए अमृत के बिन्दुओं विभूषित करना। उसके बाद कर्णिका में मुख से संचार करते हुए प्रभामंडल में स्थित और चंद्रमा के समान उज्ज्वल 'ह्रीं' मायाबीज का चिंतन करना । तदनंतर प्रत्येक पंखुडी पर भ्रमण करते हुए, आकाशतल में विचरण करते हुए, मन की मलिनता को नष्ट करते हुए, अमृतरस बहाते हुए, तालुरन्ध्र से जाते हुए, भ्रकुटि के मध्य में सुशोभित; तीन लोकों में अचिन्त्य महिमासंपन्न, मानो अद्भुत ज्योतिर्मय इस पवित्र मंत्र का एकाग्रचित्त से ध्यान करने से मन और वचन की मलीनता नष्ट हो जाती है और श्रुतज्ञान प्रकट होता है। इस तरह निरंतर छह महीने तक अभ्यास करने से साधक का मन जब स्थिर हो जाता है, तब वह अपने मुखकमल से निकलती हुई धूम - शिखा देखता है। एक वर्ष तक ध्यान करने वाला साधक ज्वाला देखता है और उसके बाद विशेष संवेग की वृद्धि होने पर सर्वज्ञ का मुखकमल देखने में समर्थ होता है। इससे आगे बढ़कर कल्याणमय माहात्म्य से देदीप्यमान, समस्त अतिशय से संपन्न और प्रभामंडल में स्थित सर्वज्ञ को प्रत्यक्ष-सा देखने लगता है। बाद में सर्व के स्वरूप में मन स्थिर करके वह आत्मा संसार अटवी को पारकर सिद्धि मंदिर में विराजमान हो जाता है ।।४७-५६ ॥ यहां तक मायाबीज ही का ध्यान बतलाया। अब वीं विद्या के संबंध में कहते हैं 434

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