Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 454
________________ पदस्थ ध्यान का स्वरूप योगशास्त्र अष्टम प्रकाश श्लोक ३८ से ४४ तीन जगत् के पूजनीय बन जाते हैं। हजारों पाप किये हुए और सैकड़ों जीवों का हनन करके तिथंच जैसे जीव भी इस मंत्र की सम्यग् आराधना करके स्वर्ग में पहुंच गये हैं ॥३६-३७।। बैल के जीव कंबल और शंबल, चंडकौशिक सर्प, नंदन मेंढक आदि देवलोक में गये है। अन्य प्रकार से पंचपरमेष्ठी-विद्या कहते हैं|८०९। गुरुपञ्चक-नामोत्था, विद्या स्यात् षोडशाक्षरा । जपन् शतद्वयं तस्याश्चतुर्थस्याप्नुयात्फलम् ।।३८।। ___ अर्थ :- गुरुपंचक अर्थात् पंचपरमेष्ठी के नाम से उत्पन्न हुआ 'नमः' पद और विभक्तिरहित उनके नाम 'अरिहंत सिद्ध आयरिय उवज्झाय साहू' इस तरह सोलह अक्षर की विद्या का दो सौ बार जाप करने से एक उपवास का फल प्राप्त होता है ॥३८।। ।८१०। शतानि त्रीणि षट्वर्णं, चत्वारि चतुरक्षरम् । पञ्चावणं जपन् योगी, चतुर्थफलमश्नुते ॥३९।। अर्थ :- 'अरिहंत सिद्ध' इन छह अक्षर वाली विद्या का तीन सौ बार, 'अरिहंत' इन चार अक्षरों की विद्या का . चारसौ बार, अकार मंत्र का पांच सौ बार जप करने वाले योगी को एक एक उपवास का फल मिलता है ॥३९॥ यह सामान्य उपवास का फल भद्रिक आत्माओं के लिए कहा है, मुख्यफल तो स्वर्ग और मोक्ष है। इसे ही आगे बताते हैं।८११। प्रवृत्तिहेतुरेवैतद्, अमीषां कथितं फलम् । फलं स्वर्गापवर्गों तु, वदन्ति परमार्थतः ॥४०॥ अर्थ :- इन सब मंत्रों के जाप का फल जो एक उपवास बतलाया है, वह बालजीवों को जाप में प्रवृत्त करने के - लिए कहा है। परमार्थ रूप से तो ज्ञानी पुरुष इसका फल स्वर्ग और अपवर्ग रूप बताते हैं।।४०।। दूसरे प्रकार से पदमयी देवता का ध्यान कहते हैं।८१२। पञ्चवर्णमयी पञ्चतत्त्वा विद्योद्धृता श्रुतात् । अभ्यस्यमाना सततं भवक्लेशं निरस्यति ॥४१॥ अर्थ :- विद्याप्रवाद नाम के पूर्व से उद्धृत की हुई पंचवर्ण वाली पंचतत्त्व रूप 'हाँ, ह्रीं, हूँ, हाँ, हूं: अ सि आ उ सा नमः' विद्या के जाप का निरंतर अभ्यास किया जाय तो वह संसार के क्लेश को मिटाती है।।४।। ।८१३। मङ्गलोत्तमशरण-पदान्यव्यग्रमानसः । चतुःसमाश्रयाण्येव, स्मरन् मोक्षं प्रपद्यते ॥४२।। अर्थ :- मंगल, उत्तम और शरण इन तीनों पदों को अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म के साथ जोड़कर एकाग्रचित्त स्मरण से करने वाला ध्याता मोक्ष को प्राप्त करता है ॥४२॥ भावार्थ :- वह इस प्रकार है-चत्तारि मंगलं-अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपन्नत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपन्नतो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरणं पवज्जामि, अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि केवलि पन्नत्त धम्मं सरणं पवज्जामि। मतलब यह है कि मंगल, उत्तम और शरण इन तीन पदों को उक्त चारों पदों के साथ जोड़ना चाहिए।।४२।। _अब आधे श्लोक से विद्या और आधे श्लोक से मंत्र कहते हैं।८१४। मुक्ति-सौख्यप्रदां ध्यायेद्, विद्यां पञ्चदशाक्षराम् । सर्वज्ञाभ स्मरेन्मन्त्रं, सर्वज्ञान-प्रकाशकम् ॥४३॥ अर्थ :- मुक्ति-सुखदायिनी पंद्रह अक्षरों की विद्या 'ॐ अरिहंत-सिद्धसयोगिकेवली स्वाहा' का ध्यान करना चाहिए। तथा संपूर्ण ज्ञान को प्रकाशित करने वाले सर्वज्ञ-तुल्य 'ॐ श्रीं ह्रीं अहं नमः' नामक मंत्र का स्मरण करना चाहिए ॥४३॥ इसे सर्वज्ञ-तुल्य मंत्र कहा है, उसकी महिमा बताते हैं।८१५। वक्तुं न कश्चिदप्यस्य, प्रभावं सर्वतः क्षमः । समं भगवता साम्यं, सर्वज्ञेन बिभर्ति यः ॥४४॥ अर्थ :- यह मंत्र सर्वज्ञ भगवान् की समानता को धारण करता है। इस मंत्र और विद्या के प्रभाव को पूरी तरह कहने में कोई भी समर्थ नहीं है ॥४४॥ 433

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