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उपसंहार
योगशास्त्र पंचम प्रकाश श्लोक २७२ से २७३ में जब सफलता प्राप्त हो जाये और ऊपर कहे हुए सर्व-संयोजनों में वायु छोड़ने में कुशलता प्राप्त हो जाये; तब छोटे-छोटे पक्षियों के मृत शरीर में वेध करने का प्रत्यन करना चाहिए। पतंगा, भौंरा आदि के मृत शरीर में वेध करने का अभ्यास करने के बाद हिरन आदि के विषय में भी अभ्यास आरंभ करना चाहिए। फिर एकाग्रचित्त धीर एवं जितेन्द्रिय होकर योगी को मनुष्य, घोड़ा, हाथी आदि के मृतशरीरों में प्रवेश और निर्गम करते हुए अनुक्रम से पाषाणमूर्ति, पुतली, देवप्रतिमा आदि में भी प्रवेश करना चाहिए ।। २६४ - २७१ ।।
उपसंहार करते हुए शेष कहने योग्य बात कहते हैं
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।७३४। एवं परासु-देहेषु, प्रविशेद् वामनासया । जीवदेहप्रवेशस्तु नोच्यते पापशङ्कया ॥ २७२॥ अर्थ :- इस प्रकार मृत- जीवों के शरीर में बायीं नासिका से प्रवेश करना चाहिए। दूसरे के प्राणनाश होने के भय से पाप की शंका से जीवित देह में प्रवेश करने का कथन नहीं कर रहे है ।। २७२ ।।
भावार्थ :- जीवित शरीर में प्रवेश शस्त्र - घातादि के समान पापस्वरूप होने से कथन करने योग्य नहीं है। दूसरे के प्राणों का नाश किये बिना उसके शरीर में प्रवेश नहीं किया जा सकता है। वह वस्तुतः हिंसा रूप है। टीका में उसका दिग्दर्शन किया गया है, वह इस प्रकार है
ब्रह्मरन्ध्रेण निर्गत्य प्रविश्यापानवर्त्मना । श्रित्या नाभ्यम्बुजं यायात् हृदम्भोजं सुषुम्णया ॥१॥ तत्र तत्प्राण-सञ्चारं निरुध्यान्निजवायुना । यावद्देहात्ततो देही, गतचेष्टो विनिष्पतेत् ॥२॥ तेन देहे विनिर्मुक्ते प्रादुभूतेन्द्रियक्रियः । वर्तेत सर्वकार्येषु स्वदेह इव योगवित् ॥३॥ दिनार्थं वा दिनं चेति क्रीडेत् परपुरे सुधीः । अनेन विधिना भूयः प्रविशेदात्मनः पुरम् ॥४॥ अर्थ :
ब्रह्मरन्ध्रे बाहर निकलकर दूसरे के शरीर में अपान - (गुदा) मार्ग से प्रवेश करना चाहिए। प्रवेश करने के बाद नाभि-कमल का आश्रय लेकर सुषुम्णानाड़ी के द्वारा हृदयकमल में जाना चाहिए। वहां जाकर अपनी वायु के द्वारा उसके प्राणसंचार को रोक देना चाहिए और तब तक रोक रखे कि जब तक वह निश्चेष्ट होकर गिर न पड़े। अंतर्मुहूर्त में वह आत्मदेह मुक्त हो जायेगा। तब अपनी ओर से इंद्रियों की क्रिया प्रकट होने पर योगी उस शरीर से अपने शरीर की तरह सर्व क्रियाओं में प्रवृत्ति करे । बुद्धिमान पुरुष आधा दिन या एक दिन तक दूसरे के शरीर में क्रीड़ा करके इसी विधि से फिर अपने शरीर में प्रवेश करे। परकायाप्रवेश का फल कहते हैं
।७३५। क्रमेणैवं परपुरप्रवेशाभ्यासशक्तितः । विमुक्त इव निर्लेपः स्वेच्छया सञ्चरेत्सुधीः ॥ २७३।। अर्थ :- इस प्रकार बुद्धिमान योगी दूसरे के शरीर में प्रविष्ट करने की अभ्यासशक्ति उत्पन्न होने के कारण मुक्तपुरुष के समान निर्लेप होकर अपनी इच्छानुसार विचरण कर सकते हैं ।।२७३ ।।
।। इस प्रकार परमार्हत श्रीकुमारपाल राजा की जिज्ञासा से आचार्यश्री हेमचंद्राचार्यसूरीश्वर रचित अध्यात्मोपनिषद् नामक पट्टबद्ध अपरनाम योगशास्त्र का
खोपज्ञविवरणसहित पंचम प्रकाश संपूर्ण हुआ ।
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