Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 449
________________ ध्यान साधना का क्रम, पिण्डस्थ का स्वरूप योगशास्त्र सप्तम प्रकाश श्लोक १० से १९ ।७५२। पार्थिवी स्यादथाग्नेयी, मारुती वारुणी तथा । तत्त्वभूः पञ्चमी चेति, पिंडस्थे पञ्च धारणा ॥९॥ | अर्थ :- पिंडस्थ ध्येय में पांच धारणाएं होती है, १. पार्थिवी, २. आग्नेयी, ३. मारुती, ४. वारुणी और ५. तत्त्वभू।।९।। उसमें पार्थिवी धारणा को तीन श्लोकों से कहते हैं।७५३। तिर्यग्लोकसमं ध्यायेत्, क्षीराब्धिं तत्र चाम्बुजम् । सहस्रपत्रं स्वर्णाभं, जम्बूद्वीपसमं स्मरेत् ॥१०॥ ।७५४। तत्केसरततेरन्तः, स्फुरपिंगप्रभाञ्चिताम् । स्वर्णाचलप्रमाणां च, कर्णिकां परिचिन्तयेत् ॥११॥ १७५५। श्वेतसिंहासनासीनं, कर्मनिर्मूलनोद्यतम् । आत्मानं चिन्तयेत् तत्र, पार्थिवीधारणेत्यसौ ॥१२॥ अर्थ :- एक रज्जु-प्रमाण विस्तृत तिर्यग्लोक है। इसके बराबर लंबे-चौड़े क्षीर-समुद्र का चिंतन करना, उसमें एक लाख योजन जम्बूद्वीप के समान स्वर्ण-कान्ति-युक्त एक हजार पंखुड़ियों वाले कमल का चिंतन करना चाहिए। उस कमल के मध्यभाग में केसराएँ हैं और उसके अंदर देदीप्यमान पीली प्रभा से युक्त और सुमेरुपर्वत के समान एक लाख योजन ऊँची कर्णिका-(पीठिका) का चिंतन करना। उस कर्णिका पर एक उज्ज्वल सिंहासन है, जिस पर बैठकर कर्मों का समूल उन्मूलन करने में उद्यत अपने शांत आत्मा का चिंतन करना चाहिए। इस प्रक्रिया को 'पार्थिवी-धारणा' कहते हैं ॥१०-१२।। अब छह श्लोकों द्वारा आग्नेयी धारणा कहते हैं।७५६। विचिन्तयेत्तथा नाभौ, कमलं षोडशच्छदम् । कर्णिकायां महामन्त्रं, प्रतिपत्रं स्वरावलीम् ॥१३॥ ।७५७। रेफबिन्दुकलाक्रान्तं, महामन्त्रे यदक्षरम् । तस्य रेफाद् विनिर्यान्ती, शनै—मशिखां स्मरेत् ॥१४॥ ।७५८। स्फुलिंगसन्ततिं ध्यायेत्, ज्वालामालामनन्तरम् । ततो ज्वालाकलापेन, दहत् पद्मं हदि स्थितम् ॥१५।। ।७५९। तदष्टकर्मनिर्माणमष्टपत्रमधोमुखम् । दहत्येव महामन्त्रध्यानोत्थः प्रबलानलः ॥१६।। ।७६०। ततो देहाद् बहिायेत् त्र्यसं वह्निपुरं ज्वलत् । लाञ्छितं स्वस्तिकेनान्ते, वह्निबीजसमन्वितम् ॥१७॥ ।७६१। देहपद्मं च मन्त्रार्चिरन्तर्वह्निपुरं बहिः । कृत्वाऽऽशु भस्मसाच्छाम्येत्, स्यादाग्नेयीति धारणा ॥१८॥ अर्थ :- तथा नाभि के अंदर सोलह पंखूडी वाले कमल का चिंतन करना। उसकी कर्णिका में महामंत्र 'अहं' की स्थापना करना और उसकी प्रत्येक पंखुडी पर क्रमशः 'अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लु, लु, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः' इन सोलह स्वरों की स्थापना करनी चाहिए। उसके बाद रेफ, बिन्दु और कला से युक्त, महामंत्र के 'ह' अक्षर है, उस रेफ में से धीरे-धीरे निकलने वाली धूम-शिखा का चिंतन करना चाहिए, फिर उसमें से अग्नि की चिनगारियों के निकलने का चिंतन करना। बाद में निकलती हुई अनेक अग्नि-ज्वालाओं का चिंतन करना। उसके बाद इन ज्वालाओं से हृदय में स्थित आठ पंखुड़ी-(दल) वाले कमल का चिंतन करना, उसकी प्रत्येक पंखुड़ी पर अनुक्रम से १. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र और ८. अंतराय, इन आठ कमों की स्थापना करनी चाहिए। यह कमल अधोमुख होना चाहिए। 'अहं' महामंत्र के ध्यान से उत्पन्न हुई महाप्रबन्ध रूप अग्नि अष्ट-कर्म रूपी अधोमुखी कमल को जला देती है, ऐसा चिंतन करना। उसके बाद शरीर के बाहर त्रिकोण (तिकोन) अग्निकुंड और स्वस्तिक के चिह्न-युक्त अग्निबीज 'रकार' सहित चिंतन करना। तत्पश्चात् शरीर के भीतर महामंत्र के ध्यान से उत्पन्न हुई अग्निज्वाला और बाहर की अग्निकुंड की ज्वाला से देह और आठ कर्मों का चिंतनकर कमल को तत्काल भस्म करके अपने आप अग्नि को शांत कर देना चाहिए। यह आग्नेयी धारणा है। महामंत्र सिद्धचक्र में स्थित बीज रूप 'अह" जानना।।१३-१८॥ अब दो श्लोकों से वायवी धारणा कहते हैं७६२। ततस्त्रिभुवनाभोगं, पूरयन्तं समीरणम् । चालयन्तं गिरीनब्धीन्, क्षोभयन्त विचिन्तयेत् ॥१९॥ 427

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