Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 433
________________ मृत्युज्ञान के विविध उपाय योगशास्त्र पंचम प्रकाश श्लोक १४० से १५१ ।६०२ । छर्दिर्मूत्रं पुरीषं वा, सुवर्ण रजतानि वा । स्वप्ने पश्येद् यदि तदा, मासान्नवैव जीवति ॥ १४०॥ अर्थ :- यदि कोई व्यक्ति स्वप्न में उलटी, मूत्र, विष्ठा अथवा सोना या चांदी देखता है तो वह नौ महीने तक जीवित रहता है ।। १४० ।। ६०३ | स्थूलोऽकस्मात् कृशोऽकस्मादकस्मादतिकोपनः । अकस्मादतिभीरुर्वा, मासानष्टैव जीवति।।१४१॥ अर्थ :- जो मनुष्य बिना कारण अकस्मात् ही मोटा हो जाये या अकस्मात् ही दुबला हो जाये अथवा अकस्मात् ही क्रोधी स्वभाव का हो जाये या डरपोक हो जाये तो वह आठ महीने तक ही जीवित रहता है । । १४१ ।। | | ६०४ | समग्रमपि विन्यस्तं, पांशौ वा कर्दमेऽपि वा । स्याच्चेत्यखण्डं पदं सप्तमास्यन्ते म्रियते तदा ॥ १४२ ॥ यदि धूल पर या कीचड़ में पुरा पैर रखने पर भी जिसे वह अधूरा पड़ा हुआ दिखायी दे, उसकी सात महीने में मृत्यु होती है ।। १४२ ।। तथा अर्थ : ||६०५ । तारां श्यामां यदा पश्येत्, शुष्येदधरतालु च । न स्वाङ्गुलित्रयं मायाद्, राजदन्तद्वयान्तरे॥१४३॥ ।६०६। गृध्रः काकः कपोतो वा, क्रव्यादोऽन्योऽपि वा खगः। निलीयेत यदा मूर्ध्नि, षण्मास्यन्ते मृतिस्तदा ॥ १४४ ॥ अर्थ :- यदि अपनी आंख की पुलती एकदम काली दिखायी दे, किसी बीमारी के बिना ही ओठ और तालु सूखने लगें, मुंह चौड़ा करने पर ऊपर और नीचे के मध्यवर्ती दांतों के बीच अपनी तीन अंगुलियाँ नहीं समाएँ तथा गिद्ध, काक, कबूतर या कोई भी मांसभक्षी पक्षी मस्तक पर बैठ जाये तो उसकी छह महीने के अंत में मृत्यु होती है ।। १४३ - १४४ ।। | | ६०७ । प्रत्यहं पश्यताऽनभ्रेऽहन्यापूर्यजलैर्मुखम् । विहिते पूत्कृते शक्रधन्वा तु तत्र दृश्यते ॥ १४५ ॥ ||६०८ । यदा न दृश्यते तत्तु मासैः षड्भिर्मृतिस्तदा । परनेत्रे स्वदेहं चेत् न पश्येन्मरणं तदा ॥१४६॥ अर्थ :- हमेशा मेघरहित दिन के समय मुंह में पानी भरकर आकाश में फुरर् करते हुए ऊपर उछालने पर और कुछ दिन तक ऐसा करने पर उस पानी में इंद्रधनुष-सा दिखायी देता है। परंतु जब वह इंद्रधनुष्य न दिखायी दे तो उस व्यक्ति की छह महीने में मृत्यु होती है। इसके अतिरिक्त यदि दूसरे की आंख की पुतली में अपना शरीर दिखायी न दे तो भी समझ लेना कि छह मास में मृत्यु होगी ।। १४५ - १४६ ।। | | ६०९ | कूर्परौ न्यस्य जान्वोर्मूध्न्येकीकृत्य करौ सदा । रम्भाकोशनिभां छायां, लक्षयेदन्तरोद्भवाम् ॥१४७॥ अर्थ : | | ६१० | विकासि च दलं तत्र, यदैकं परिलक्ष्यते । तस्यामेव तिथौ मृत्युः षण्मास्यन्ते भवेत् तदा ॥१४८॥ दोनों घुटनों पर दोनों हाथों की कोहनियों को टेक करके अपने हाथ के दोनों पंजे मस्तक पर रखे और ऐसा करने पर नभ में बादल न होने पर भी दोनों हाथों के बीच में डोडे के समान छाया उत्पन्न होती है, तो उसे हमेशा देखते रहना चाहिए। उस छाया में एक पत्र जिस दिन विकसित होता हुआ दिखायी दे तो समझ लेना कि उसी दिन उसी तिथि को छह महीने के अंत में मृत्यु होगी ।। १४७- १४८ ।। || ६११ | इन्द्रनीलसमच्छाया, वक्रीभूता सहस्रशः । मुक्ताफलालङ्करणाः पन्नगाः सूक्ष्ममूर्तयः ॥ १४९ ॥ ||६१२ । दिवा सम्मुखमायान्तो, दृश्यन्ते व्योम्नि सन्निधौ । न दृश्यन्ते यदा ते तु, षण्मास्यन्ते मृतिस्तदा ॥ १५० ॥ अर्थ :- जब आकाश बादलों से रहित हो, उस समय मनुष्य धूप में स्थिर रहे, तब उसे इंद्रनील - मणि की कांति के समान टेढ़े-मेढ़े हजारों मोतियों के अलंकार वाले तथा सूक्ष्म आकृति के सर्प सन्मुख आते हुए दिखायी देते हैं, किंतु जब वे सर्प न दिखाई दें तो समझना कि छह महीने के अंत में उसकी मृत्यु होगी । । १४९ - १५० ॥ ||६१३ | स्वप्ने मुण्डितमभ्यक्तं, रक्तगन्धस्रगम्बरम्। पश्येद् याभ्यां खरे यान्तं, स्वं योऽब्दार्थं स जीवति ॥१५१॥ अर्थ :- जो मनुष्य स्वप्न में अपना मस्तक मुंडा हुआ, तैल की मालिश किये हुए लाल रंग का पदार्थ शरीर पर 411

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