Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 436
________________ शुकुन द्वारा काल ज्ञान ___योगशास्त्र पंचम प्रकाश श्लोक १७७ से १८५ अर्थ :- गुरु महाराज के द्वारा कथित विधि के अनुसार विद्या के द्वारा दर्पण, अंगूठे, दीवार या तलवार आदि पर विधि पूर्वक उतारी हुई देवता आदि की आकृति प्रश्न करने पर काल (मृत्यु) का निर्णय बता देती है।।१७३।। सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण का समय हो, तब 'ॐ नरवीरे ठः ठः स्वाहा' इस विद्या का दस हजार आठ बार जाप करके इसे सिद्ध कर लेना चाहिए।।१७४।। जब इस विद्या से कार्य लेना हो तो एक हजार आठ बार जाप करने से वह दर्पण, तलवार आदि पर अवतरित हो जाती है ।।१७५।। उसके बाद दर्पण आदि में एक कुमारी (निर्दोष) कन्या को दिखलाना चाहिए। जब कन्या को उसमें देवता का रूप दिखायी| दे, तब उससे आयु का प्रश्न करके निर्णय करना चाहिए। अथवा उत्तम प्रकार के साधक के गुणों से आकृष्ट होकर देवता अपने आप ही निःसंदेह त्रिकाल-संबंधी आयु का निर्णय बता देगा।।१७३-१७६।। अब पांच श्लोकों द्वारा शकुन द्वारा कालज्ञान बताते हैं६३९।अथवा शकुनाद् विद्यात्, सज्जो वा यदि वाऽऽतुरः। स्वतो वा परतो वाऽपि, गृहे वा यदि वा बहिः ॥१७७॥ ।६४०। अहि-वृश्चिक-कृम्याखु-गृहगोधा-पिपीलिकाः । यूका-मत्कुण-लूताश्च, वल्मीकोऽथोपदेहिकाः ॥१७८|| ।६४१। कीटिका घृतवर्णाश्च, भ्रमर्यश्च यदाऽधिकाः । उद्वेग-कलह-व्याधि-मरणानि तदा दिशेत् ॥१७९।। अर्थ :- अथवा कोई पुरुष नीरोगी हो या रोगी हो अपने आप से और दूसरे घर से, घर के भीतर हो या घर के बाहर, शकुन के द्वारा कालनिर्णय करे। जैसे-सर्प, बिच्छू, कीडे, चूहे, छिपकली, चिटियाँ, चूं, खटमल, मकडी, दीमक, घृतवर्ण की चीटियों, भौरे आदि बहुत अधिक परिमाण में निकलते दीखें तो उद्वेग, क्लेश, व्याधि या मृत्यु होती है ।।१७७–१७९।। ||६४२। उपानद्-वाहनच्छत्र-शस्त्रच्छायाङ्ग-कुन्तलान् । चञ्च्वा चुम्बेद् यदा काकस्तदाऽऽसन्नैव पञ्चता।।१८०।। ।६४३। अश्रुपूर्णदृशो गावो, गाढं पादैर्वसुन्धराम् । खनन्ति चेत् तदानीं स्याद्, रोगो मृत्युश्च तत्प्रभोः ।।१८१।। अर्थ :- जूते, हाथी, घोड़े आदि किसी सवारी को अथवा छत्र, शस्त्र, परछाई, शरीर या केश को कौआ चुंबन कर ले तो मत्य नजदीक समझो, यदि आंखों से आंस बहाती हुई गायें अपने पैरों से जोर से पृथ्वी के खोदने लगे तो उसके स्वामी को बीमारी या मृत्यु होगी ॥१८०-१८१।। अन्य प्रकार से कालज्ञान कहते हैं।६४४। अनातुरकृते ह्येतत्, शकुनं परिकीर्तितम् । अधुनाऽऽतुरमुद्दिश्य, शकुनं परिकीर्त्यते ॥१८२।। अर्थ :- पूर्व श्लोकों में स्वस्थ पुरुष के कालनिर्णय के लिए शकुन बताया गया है। अब रोगी मनुष्य को लक्ष्य करके शकुन कहते हैं ।।१८२।। रोगी के शकुन में श्वान-संबंधी शकुन कहते हैं६४५। दक्षिणस्यां वलित्वा चेत् श्वा गुदं लेढ्युरोऽथवा । लाङ्गुलं वा तदा मृत्युः, एक-द्वि-त्रिदिनैः क्रमात् ॥१८३।। ।६४६। शेते निमित्तकाले चेत्, श्वा सङ्कोच्याखिलं वपुः । धूत्वा कर्णो वलित्वाऽङ्ग, धुनोत्यथ ततो मृतिः ॥१८४|| ।६४७। यदि व्यात्तमुखो लालां, मुञ्चन् सङ्कोचितेक्षणः । अङ्ग सङ्कोच्य शेते श्वा, तदा मृत्युर्न संशयः ॥१८५॥ अर्थ :- रोगी मनुष्य जब अपने आयुष्य-संबंधी शकुन देख रहा हो, उस समय यदि कुत्ता दक्षिणदिशा में मुड़कर अपनी गुदा को चाटे तो उसकी एक दिन में मृत्यु होती है, यदि हृदय को चाटे तो दो दिन में और पूंछ | चाटे तो तीन दिन में मृत्यु होती है। यदि रोगी निमित्त देख रहा हो उस समय कुत्ता अपने पूरे शरीर को | सिकोड़कर सोया हो अथवा कानों को पटपटा रहा हो या शरीर को मोड़कर हिला रहा हो तो रोगी की मृत्यु होगी। यदि कुत्ता मुंह फाड़कर लार टपकाता हुआ आंख बंदकर और शरीर को सिकोड़कर सोता हुआ दिखायी दे तो रोगी की निश्चित ही मृत्यु होगी ।।१८३-१८५।। अब दो श्लोकों के द्वारा कौए का शकुन होते हैं 414

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