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द्विविध-उपश्रुति से कालनिर्णय
योगशास्त्र पंचम प्रकाश श्लोक १८६ से १९७ ||६४८। यद्यातुरगृहस्योवं, काकपक्षिगणो मिलन् । त्रिसन्ध्यं दृश्यते नूनं, तदा मृत्युरुपस्थितः ॥१८६॥ ।६४९।महानसेऽथवा शय्यागारे काकाः क्षिपन्ति चेत्। चर्मास्थिरज्जु केशान् वा, तदाऽऽसन्नैव पञ्चता ।।१८७।।
अर्थ :- यदि रोगी मनुष्य के घर पर प्रभात, मध्याह्न और शाम के समय अर्थात् तीनों संध्याओं के समय में कौओं __ का झुंड मिलकर कोलाहल करे तो समझ लेना कि मृत्यु निकट है। तथा रोगी के भोजनगृह या शयनगृह
पर कौए चमड़ा, हड्डी, रस्सी या केश डाल दें तो समझना चाहिए कि रोगी की मृत्यु समीप ही है। अब नौ श्लोकों द्वारा उपश्रुति से काल-निर्णय बताते हैं||६५०। अथवोपश्रुतेर्विद्याद् विद्वान् कालस्य निर्णयम् । प्रशस्ते दिवसे स्वप्नकाले शस्तां दिशं श्रितः।।१८८॥ ।६५१। पूत्वा पञ्च नमस्कृत्याऽऽचार्यमन्त्रेण वा श्रुती । गेहाच्छन्नश्रुतिर्गच्छेत् शिल्पिचत्वरभूमिषु ॥१८९।। ।६५२। चन्दनेनार्चयित्वा क्ष्मां, क्षिप्त्वा गन्धाक्षतादि च । सावधानस्ततस्तत्रोपश्रुतेः शृणुयाद् ध्वनिम् ॥१९०॥ ।६५३। अर्थान्तरापदेश्यश्च, सरूपश्चेति स द्विधा । विमर्शगम्यस्तत्राद्यः स्फुटोक्तार्थोऽपरः पुनः ॥१९१।। ।६५४। यथैष भवनस्तम्भ, पञ्च-षड्भिरेव दिनैः । पक्षैर्मासैरथो वर्षेर्भक्ष्यते यदि वा न वा ॥१९२।। ।६५५। मनोहरतरश्चासीत्, किं त्वयं लघु भक्ष्यते । अर्थान्तरापदेश्या स्याद्, एवमादिरुपश्रुतिः ॥१९३।।
६५६। एषा स्त्रीः पुरुषो वाऽसौ, स्थानादस्मान्न यास्यति । दास्यामो न वयं गन्तुं गन्तुकामो न चाप्ययम् ॥१९४॥ ||६५७। विद्यते गन्तुकामोऽयम् अहं च प्रेषणोत्सुकः । तेन यस्यात्यसौ शीघ्रं, स्यात् सरूपेत्युपश्रुतिः ॥१९५॥ ||६५८। कर्णोद्घाटन-सञ्जातोपश्रुत्यन्तरमात्मनः । कुशलाः कालमासन्नम्, अन्नासन्नं च जानते ॥१९६।। अर्थ :- अथवा विद्वानपुरुषों को उपश्रुति से आयुष्य-काल जान लेना चाहिए। उसकी विधि इस प्रकार है-जिस
दिन भद्रा आदि अपयोग न हो, ऐसे शभदिन में सोने के समय अर्थात् एक प्रहर रात्रि व्यतीत हो जाने के बाद शयन-काल में उत्तर, पूर्व या पश्चिम दिशा में प्रयाण करना। जाते समय पांच नवकारमंत्र से या सूरिमंत्र से अपने दोनों कान पवित्र करके किसी का शब्द कान में सुनायी न दे इस प्रकार बंद करके घर से बाहर निकले। और शिल्पियों (कारीगरों) के घरों की और चौक अथवा बाजार की ओर पूर्वोक्त दिशाओं में गमन करे। वहां जाकर भूमि की चंदन से अर्चना करके सुगंधित चूर्ण, अक्षत आदि डालकर सावधान होकर कान खोलकर लोगों के शब्दों को सुने। वे शब्द दो प्रकार के होते हैं-१. अर्थान्तरापदेश्य
और २. स्वरूप-उपश्रुति। प्रथम प्रकार का शब्द सुना जाये तो उसका अभीष्ट अर्थ प्रकट न करे, और दूसरा स्वरूप उपश्रुति अर्थात् जैसा शब्द हो, उसी अर्थ को प्रकट करना। अर्थान्तरापदेश्य-उपश्रुति का अर्थ विचार (तर्क) करने पर ही जाना जा सकता है, जैसे कि 'इस मकान का स्तंभ पांच-छह दिनों में, पांच-छह पखवाडों में, पांच-छह महीनों में या पांच-छह वर्षों में टूट जायेगा अथवा नहीं टूटेगा, यह स्तंभ अतिमनोहर है, परंतु यह छोटा है, जल्दी ही नष्ट हो जायेगा।' इस प्रकार की उपश्रुति 'अर्थातरापदेश्य' कहलाती है। यह सुनकर अपनी आयुष्य का अनुमान लगा देना चाहिए। जितने दिन, पक्ष, महीने, वर्ष में स्तंभ टूटने की ध्वनि सुनायी दी हो, उतने ही दिन आदि में आयु की समाप्ति समझना चाहिए। दूसरी स्वरूप-उपश्रुति इस प्रकार होती है-यह स्त्री इस स्थान से नहीं जायेगी, यह पुरुष यहां से जाने वाला नहीं है अथवा हम उसे जाने नहीं देंगे और वह जाना भी नहीं चाहता या अमुक यहां से जाना चाहता है, मैं उसे भेजना चाहता हूं, अतः अब वह शीघ्र ही चला जायेगा, यह स्वरूप उपश्रुति कहलाती है। इसका अभिप्राय यह है कि यदि जाने की बात सुनायी दे तो आयु का अंत निकट है और रहने की बात सुने तो मृत्यु अभी नजदीक नहीं है। इस प्रकार कान खोलकर स्वयं सुनी हुई उपश्रुति
के अनुसार चतुर पुरुष अपनी मृत्यु निकट या दूर है, इसे जान लेते हैं।।१८८-१९६।। अब शनैश्चर-पुरुष से कालज्ञान का उपाय चार श्लोकों के द्वारा कहते हैं||६५९। शनिः स्याद् यत्र नक्षत्रे, तद् दातव्यं मुखे ततः । चत्वारि दक्षिणे पाणौ, त्रीणि त्रीणि च पादयोः ।।१९७॥
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