Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 415
________________ मन की स्थिरता रहे वैसा आसन योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक १३४ से १३५ | उन पर बीस उपसर्ग किये थे। उन्हें प्रभु ने समता से सहन किये थे । तथा एक तरफ सोये रहना, ऊर्ध्वमुखी, अधोमुखी या तिर्यग्मुखी आसन होता है। तथा दंड के समान लंबा लेट जाना, शरीर सीधा करना और दोनों जंघाएँ और जांघें | लंबी करके या चौड़ी करके स्थिर रहना होता है। तथा लगुडशायित्व उसे कहते हैं, जिसमें मस्तक और दोनों एड़ियाँ जमीन को स्पर्श करे, किन्तु शरीर जमीन से अधर रहे और समसंस्थान - जिसमें एडी के आगे का भाग और पैर दोनों | मोडकर परस्पर दबाना और दुर्योधासन उसे कहते हैं, जिसमें भूमि पर मस्तक रखकर पैर ऊंचे रखना होता है, इसे कपालीकरण आसन भी कहते हैं। इसी प्रकार रहकर यदि दो जंघाओं से पद्मासन करे तो दंडपद्मासन कहलाता है। जिसमें बांया पैर घुमाकर दाहिनी जंघा के बीच में रखा जाय और दाहिना पैर घुमाकर बांये पैर के बीच में रखा जाय, | उसे स्वस्तिकासन कहते हैं। योगपट्टक के योग से जो होता है वह सोपाश्रयासन है। तथा कौंच - निषदन, हंस-निषदन, | गरुड़-निषदन आदि आसन उन पक्षियों के बैठने की स्थिति के समान स्थिति में बैठने (ऐसी आकृति वाले) से होते हैं। इस प्रकार आसन की विधि व्यवस्थित नहीं है। इसका अर्थ है आसन की विधियाँ अनेक प्रकार की है । । १३३ ।। | ४६० । जायते येन येनेह विहितेन स्थिरं मनः । तत्तदेव विधातव्यम्, आसनं ध्यान-साधनम् ॥१३४|| अर्थ :- जिस-जिस आसन का प्रयोग करने से मन स्थिर होता हो, उस-उस आसन का ध्यान के साधन रूप में प्रयोग करना चाहिए। इसमें ऐसा आसन ही करना चाहिए, ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है ।। १३४ || व्याख्या :- मांस या चर्बी वाले अथवा बलिष्ठ मनुष्यों को जिस आसन के करने से मन की स्थिरता रहे, वही | आसन करना चाहिए। इसलिए कहा है कि 'जिन्होंने पापों को शांत कर दिया, ऐसे कर्म-रहित मुनियों ने सभी प्रकार के देश में, काल में और चेष्टा में रहकर, उत्तम केवलज्ञान प्राप्त किया है।' इसलिए शास्त्र में देश, काल और चेष्टा अर्थात् आसनों का कोई नियम नहीं बताया है। जिस तरह से योग में समाधि रहे, उसी तरह का प्रयत्न करना चाहिए । | यह कहकर आसनों का जो कथन किया गया है, निरर्थक नहीं है। क्योंकि प्रतिमा - कल्पियों के लिए नियम से आसन | करने का विधान है, तथा बारह भिक्षु - प्रतिमाओं में से आठवीं प्रतिमा में भी आसन का नियम बताया है। वह इस | प्रकार - ऊर्ध्व मुख रखकर सोये अथवा पार्श्व फिराकर सोये अथवा सीधा बैठे या सोये । इस प्रकार सोते, बैठते या खड़े रहते देव, मनुष्य और तिर्यंच के घोर उपसर्गों को मन और शरीर से चलायमान हुए बिना, निश्चलता से सहन करे, नौवीं | प्रतिमा में इस प्रकार - सात अहोरात्रि होती है, इसमें चउत्थभक्त तप के पारणे पर आयंबिल करे और गांव आदि के बाहर रहे, इत्यादि और सब आठवीं के समान करे, विशेषता इसमें इतनी है कि इस प्रतिमा में उत्कट अर्थात् मस्तक और एड़ियों के आधार पर केवल बीच में जंघा से अधर रहकर अथवा लगुड अर्थात् टेढ़ी लकड़ी के समान केवल पीठ के आधार पर मस्तक और पैर जमीन को स्पर्श न करे इस तरह अथवा दंड के समान पैर लंबे कर सोये हुए उपसर्ग | आदि सहन करना। दसवीं प्रतिमा में इस तरह है - तीसरी अर्थात् दसवीं प्रतिमा भी उन दोनों के समान ही है, केवल उसमें गोदुहासन (गाय दूहने के समय जैसे दोनों पैर की अंगुलियाँ जमीन पर टिकाकर बैठते हैं, उसी तरह) है अथवा | वीरासन से अर्थात् सिंहासन पर बैठे हों, पैर जमीन रखे हों और बाद में सिंहासन हटा दिया हो, उस समय जो आकृति बनती है, उस आसन से अथवा आम्र के समान शरीर से वक्र होकर बैठना होता है। इसमें से किसी भी आसन में यह | प्रतिमा धारण की जा सकती है ।। १३४ । आसन ध्यान के साधन हो सकते हैं, इसे अब दो श्लोकों द्वारा बताते हैं ।४६१। सुखासनसमासीनः, सुश्लिष्टाधरपल्लवः । नासाग्रन्यस्तदृग्द्वन्द्वो, दन्तैर्दन्तानसंस्पृशन् ॥१३५॥ | | ४६२ । प्रसन्नवदनः पूर्वाभिमुखो वाऽप्युदङ्मुखः । अप्रमत्तः सुसंस्थानो, ध्याता ध्यानोद्यतो भवेत् ॥ १३६ ॥ अर्थ :सुखासन से स्थित रहे, उसके दोनों ओष्ठ मिले हुए हों, दोनों नेत्र, नाक के अग्रभाग पर स्थिर हो, दांतों के साथ दांतों का स्पर्श न हो, मुखमंडल प्रसन्न हो, पूर्व या उत्तर दिशा में मुख हो, प्रमाद 393

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