Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 414
________________ विविध आसनों का वर्णन योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक १२९ से १३३ पतंजलि ने एक पैर से खड़े रहकर दूसरा पैर टेढ़ा रखकर अधर खड़े रहने को वीरासन बताया है। अब पद्मासन का लक्षण कहते हैं।४५५। जङ्घाया मध्यभागे तु, संश्लेषो यत्र जङ्घया । पद्मासनमिति प्रोक्तं, तदासन-विचक्षणैः।।१२९।। अर्थ :- आसनविशेषज्ञों ने एक जांघ के साथ दूसरी जांघ को मध्यभाग में मिलाकर रखने को पद्मासन कहा है।।१२९।। अब भद्रासन कहते हैं।४५६। सम्पुटीकृत्य मुष्काग्रे, तलपादौ तथोपरि । पाणिकच्छपिकां कुर्याद् यत्र भद्रासनं तु तत् ॥१३०॥ अर्थ :- दोनों पैरों से तलभाग वृषण-प्रदेश में (अंडकोषों की जगह) एकत्र कर ऊसके ऊपर दोनों हाथों की अंगलियाँ एक दूसरी अंगली में डालकर रखना 'भद्रासन' कहलाता है ॥१३०।। पतंजलि ने भद्रासन का लक्षण इस प्रकार कहा है-पैरों के तलभाग को वृषण के समीप में संपुट रूप बनाकर उसके ऊपर दोनों हाथों की अंगुलियाँ परस्पर एक दूसरे में रखना ।।१३०।। अब दंडासन कहते हैं||४५७। श्लिष्टाङ्गुली श्लिष्टगुल्फौ, भूश्लिष्टोरू प्रसारयेत् । यत्रोपविश्य पादौ तद्, दण्डासनमुदीरितम्।।१३१॥ अर्थ :- पैरों की अंगुलियों समेटकर एड़ी के ऊपर वाली गांठ (टखना) एकत्र करके नितंब को भूमि से स्पर्श करके बैठे; पैर लंबे करे, उसे दंडासन कहा है ।।१३१।।। पतंजलि ने इस प्रकार कहा है कि जमीन पर बैठकर अंगुलियों को मिलाकर, एड़ी भी एकत्र करके जंघा भूमि से | स्पर्श कराई जाये और पैर लंबे किये जाये, वह दंडासन होता है। उसका अभ्यास करना चाहिए ।।१३१।। अब उत्कटिकासन और गोदोहिकासन कहते हैं||४५८। पुतपाÓिसमायोगे, प्राहरुत्कटिकासनम् । पाणिभ्यां तु भुवस्त्यागे, तत्स्याद् गोदोहिकासनम् ॥१३२॥ अर्थ :- जमीन से लगी हुई एड़ियों के साथ जब दोनों नितंब मिलते हैं, तब उत्कटिकासन होता है। इसी आसन में भगवान् महावीर को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था। कहा है कि 'जूंभिका के बाहर ऋजुबालिका नदी के किनारे वैशाख सुदी दसमी के दिन तीसरे प्रहर छट्ठ तप में शालवृक्ष के नीचे वीरप्रभु उत्कटिकासन में थ, उस समय उन्हें केवलज्ञान हुआ था।' उसी आसन से बैठकर दोनों एड़ियों से जब भूमि का त्याग किया जाता है और गाय दूहने के समय जिस आसन से बैठा जाता है, उसे गोदोहिकासन कहते हैं।।१३२।। प्रतिमा कल्पी मुनि इसी आसन को धारण करते हैं। अब कायोत्सर्गासन कहते हैं।।४५९। प्रलम्बितभुजद्वन्द्वमूर्ध्वस्थस्यासितस्य वा । स्थानं कायानपेक्षं यत्, कायोत्सर्गः स कीर्तितः ॥१३३।। | अर्थ :- दोनों भुजाओं को नीचे लटकाकर खड़े होकर अथवा बैठकर (और शारीरिक कमजोरी की अवस्था में लेटकर) शरीर का ममत्व त्यागकर स्थिर रहना कायोत्सर्गासन है ।।१३३।। व्याख्या :- खड़े, बैठे या सोये हुए दोनों हाथ लंबे करके काया से निरपेक्ष होकर स्थिर रहना कायोत्सर्गासन है। जिनकल्पी और छद्मस्थ तीर्थंकरों के यही आसन होता है। वे खड़े-खड़े ही कायोत्सर्ग करते हैं। स्थविरकल्पी तो खड़े और बैठे तथा उपलक्षण से लेटे-लेटे भी जिस तरह समाधि टिक सके, वैसे यथाशक्ति कायोत्सर्ग करते हैं। इस प्रकार से स्थान,ध्यान व मौनक्रिया के साथ काया का त्याग कायोत्सर्ग कहलाता है। यहां जो आसन बताये हैं वे तो दिग्दर्शनमात्र है। इनके अलावा और भी अनेक आसन हैं। वे इस प्रकार हैं-आम्र की आकृति के समान स्थिति में रहना, आम्रकुब्जासन है। जैसे भगवान् महावीर ने एक रात ऐसी प्रतिमा धारण की थी, उस समय अधम असुर संगमदेव ने 392

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