Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 421
________________ धारणा और उसका फल योगशास्त्र पंचम प्रकाश श्लोक ३२ से ३९ करके उसे नासिका के बांएँ छिद्र से अंदर खींचे और पैर के अंगूठे तक ले जाकर उस मन को निरुद्ध करे। फिर मन को क्रमशः वायु के साथ पैर के तलवे में, एड़ी में, टखने में, जांघ में, घुटने में, ऊरू में, गुदा में, लिंग में, नाभि में, पेट में, हृदय में, कंठ में, जीभ में, तालु में, नासिका के अग्रभाग में, भ्रुकुटि में, कपाल में और मस्तक में इस तरह एक के बाद दूसरे स्थान में आगे बढ़ते बढ़ते अंत में ब्रह्मरन्ध्र- पर्यंत ले जाना चाहिए। उसके बाद उसी क्रम से वापिस लौटाते हुए अंत में मन के साथ अंगूठे में वायु को लाकर फिर नाभिकमल में ले जाकर तब वायु का रेचन करना चाहिए । । २७ - ३१ ।। अब चार श्लोकों द्वारा धारणा का फल बताते हैं अर्थ : | । ४९४ । पादाङ्गुष्ठादौ जङ्घायां, जानुरु-गुद - मेहने । धारितः क्रमशो वायुः शीघ्रगत्यै बलाय च ||३२|| । ४९५ । नाभौ ज्वरादिघाताय, जठरे कायशुद्धये । ज्ञानाय हृदये, कूर्मनाड्यां रोग- जराच्छिदे ॥३३॥ ||४९६ । कण्ठे क्षुत्तृर्षानाशाय, जिह्वाग्रे रससंविदे । गन्धज्ञानाय नासाग्रे रूपज्ञानाय चक्षुषोः ||३४|| || ४९७ । भाले तद्रोगनाशाय, क्रोधस्योपशमाय च । ब्रह्मरन्ध्रे च सिद्धानां साक्षाद् दर्शनहेतवे ॥ ३५|| पैर के अंगूठे में, एड़ी में, टखने में, जंघा में, घुटने में, ऊरू में, गुदा में, लिंग में क्रमशः वायु को धारण करके रखने से शीघ्र गति और बल की प्राप्ति होती है। नाभि में वायु को धारण करने से ज्वर दूर हो जाता है, जठर में धारण करने से मलशुद्धि होने से शरीर शुद्ध हो जाता है, हृदय में धारण करने से ज्ञान की वृद्धि होती है, कूर्मनाड़ी में वायु धारण करने से रोग और वृद्धावस्था का नाश होता है, वृद्धावस्था में भी शरीर में युवक के समान स्फूर्ति रहती है। कंठ में वायु धारण करने से भूख-प्यास नहीं लगती और यदि क्षुधापिपासा लगी हो तो शांत हो जाती है। जीभ के अग्रभाग में वायु धारण करने से सर्व प्रकार का रसज्ञान होता है, नासिका के अग्रभाग में वायु को धारण करने से गंध का ज्ञान होता है और चक्षु में धारण करने से रूप ज्ञान होता है । कपाल-मस्तिष्क में वायु को धारण करने से मस्तिष्क-संबंधी रोगों का नाश होता है तथा क्रोध का उपशमन होता है और ब्रह्मरन्ध्र में वायु को रोकने से साक्षात् सिद्धों के दर्शन होते हैं ।। ३२-३५ ।। धारणा का उपसंहार करके पवन की चेष्टा का वर्णन करते हैं । ४९८ । अभ्यस्य धारणामेवं सिद्धीनां कारणं परम् । चेष्टितं पवमानस्य जानीयाद् गतसंशयः || ३६ || अर्थ :- धारणा सिद्धियों का परम कारण रूप है। उसका इस प्रकार अभ्यास करके निःशंक होकर पवन की चेष्टा को जानने का प्रयत्न करें ।। ३६ ।। इससे बहुत-सी सामान्य सिद्धियाँ प्राप्त होती है। वह इस प्रकार है ।४९९। नाभेर्निष्क्रामतश्चारं हृन्मध्ये नयतो गतिम् । तिष्ठतो द्वादशान्ते तु विद्यात्स्थानं नभस्तवः ||३७|| अर्थ :- नाभि से पवन का निकलना, 'चार' कहलाता है। हृदय के मध्य में ले जाने से 'गति' होती है और ब्रह्मरन्ध्र में रहना वायु का 'स्थान' समझना चाहिए ||३७|| अब चार आदि ज्ञान का फल कहते हैं , ।५००। तच्चार-गमन-स्थान - ज्ञानादभ्यासयोगतः । जानीयात् कालमायुश्च शुभाशुभफलोदयम् ||३८|| अर्थ :- उस वायु के चार, गमन और स्थान के ज्ञान का अभ्यास करने से काल (मरण), आयु-जीवन और शुभाशुभ फलोदय को जाना जा सकता है ||३८|| इसे यथास्थान आगे कहेंगे। इसके बाद करने योग्य कहते हैं । ५०१ । ततः शनैः समाकृष्य, पवनेन समं मनः । योगी हृदयपद्मान्तर्विनिवेश्य नियन्त्रयेत् ॥ ३९ ॥ अर्थ :- उसके बाद योगी धीरे-धीरे पवन के साथ मन को खींचकर उसे हृदय - कमल के अंदर प्रवेश कराके उसका निरोध करे ।। ३९ ।। इसका फल कहते हैं 399

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