________________
प्राणायाम का स्वरूप
योगशास्त्र पंचम प्रकाश श्लोक १४ से २० है। इन पांचों वायु के स्थान, वर्ण, क्रिया, अर्थ और बीज को जानकर योगी रेचकादि प्राणायामों से इन पर विजय प्राप्त करते हैं ।।१३।।
उससे प्राण के स्थानादि कहते हैं
।४७६। प्राणो नासाग्रहन्नाभिपादाङ्गुष्ठान्तगो हरित् । गमागमप्रयोगेण, तज्जयो धारणेन वा ॥ १४॥
अर्थ :- प्राणवायु नासिका के अग्रभाग में, हृदय में, नाभि में और पैर के अंगूठे तक फैला हुआ है। यह उसका स्थान है, उनका वर्ण हरा है, गमागम के प्रयोग अर्थात् रेचक और पूरक के प्रयोग से और धारणा के द्वारा उसे जीतना चाहिए ||१४||
अर्थ और बीज का वर्णन बाद में करेंगे, अब गमागम- प्रयोग और धारणा को कहते हैं
।४७७। नासादिस्थानयोगेन पूरणाद् रेचनान्मुहुः । गमागमप्रयोगः स्याद् धारणं कुम्भनात् पुनः || १५ || अर्थ नासिका आदि स्थानों में बार-बार वायु का पूरण और रेचन करने से गमागम- प्रयोग होता है और उस वायु का अवरोध - (कुम्भक) करने से धारणा नाम का प्रयोग होता है ।। १५ ।। अपानवायु का वर्ण स्थानादि कहते हैं
अर्थ :
।४७८। अपानः कृष्णरुग्मन्या-पृष्ठपृष्ठान्तपाणिगः । जेयः स्वस्थानयोगेन रेचनात् पूरणान्मुहुः ||१६|| अपानवायु का वर्ण काला है। गर्दन के पीछे की नाड़ी, पीठ, गुदा और एड़ी में उसका स्थान है, इन स्थानों में बार-बार रेचक और पूरक करके इसे जीतना चाहिए ।।१६।। समानवायु के वर्णादि बताते हैं
,
अर्थ :
। ४७९ । शुक्लः समानो हन्नाभिसर्वसन्धिष्ववस्थितः । जेयः स्वस्थानयोगेनासकृद् रेचन - पूरणात् ॥१७॥ समानवायु का वर्ण शुक्ल है। हृदय, नाभि और सर्वसंधियो में उसका निवास है। अपने-अपने स्थानों में बार-बार रेचक और पूरक- कुंभक करके उसे जीतना चाहिए ||१७|| उदानवायु के वर्ण-स्थानादि कहते हैं—
।४८०। रक्तो हृत्कण्ठ-तालु - भ्रू-मध्यमूर्धनि संस्थितः । उदानो वश्यतां नेयो, गत्यागतिनियोगतः ||१८|| उदानवायु का वर्ण लाल है। हृदय, कंठ, तालु, भ्रुकुटि का मध्यभाग और मस्तक में उसका स्थान है। इसे भी गति - अगति के प्रयोग से वश में करना चाहिए ||१८||
अर्थ :
अब गति - अगति के प्रयोग कहते हैं
अर्थ :
| । ४८१ । नासाकर्षणयोगेन, स्थापयेत् तं हृदादिषु । बलादुत्कृष्यमाणं च रुद्ध्वा रुद्ध्वा वशं नयेत् ॥ १९ ॥ नासिका के द्वारा बाहर से वायु को खींचकर उदानवायु को हृदयादि स्थानों में स्थापित करना चाहिए । यदि वह वायु दूसरे स्थान में जाता हो तो उसे जबरदस्ती रोककर उसी स्थान पर बार-बार निरोध करना चाहिए। अर्थात् कुंभक प्राणायाम करके कुछ समय रोके, बाद में रेचक करे। मतलब यह है - नासिका के एक छिद्र से वायु धीरे-धीरे बाहर निकाल देना चाहिए, फिर उसी छिद्र द्वारा उसे अंदर खींचकर कुंभक प्राणायाम करना चाहिए। ऐसा करने से वायु वशीभूत हो जाता है ।।१९।।
अब व्यान का वर्ण - स्थानादि कहते हैं
||४८२ । सर्वत्वग्वृत्तिको व्यानः, शक्रकार्मुकसन्निभः । जेतव्यः कुम्भकाभ्यासात्, सङ्कोच - प्रसृतिक्रमात्॥२०॥
अर्थ :- व्यान - वायु का वर्ण इंद्रधनुष के समान विविध रंगवाला है। त्वचा के सब भागों में उसका निवास-स्थान है। संकोच और प्रसार अर्थात् पूरक और रेचक प्राणायाम के क्रम से तथा कुंभक के अभ्यास से उसे जीतना चाहिए ||२०||
पांचों वायुओं के ध्यान करने योग्य बीजाक्षर बताते हैं
397