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प्राणायाम आदि का स्वरूप
योगशास्त्र पंचम प्रकाश श्लोक ६ से १३ अर्थ :- नासिका और ब्रह्मरन्ध्र तथा मुख के द्वारा कोष्ठ (उदर) में से अत्यंत प्रयत्नपूर्वक वायु बाहर निकालना,
रेचक प्राणायाम कहलाता है ।।६।। ।४६९। समाकृष्य यदापानात्, पूरणं स तु पूरकः । नाभिपद्मे स्थिरीकृत्य, रोधनं स तु कुम्भकः ।।७।।। अर्थ :- बाहर के वायु को खींचकर अपान (गुदा) द्वार पर्यंत कोष्ठ में भर देना 'पूरक प्राणायाम' है और उसे
नाभिकमल में कुंभ के समान स्थिर करके रोकना 'कुंभक प्राणायाम' कहलाता है।।७।। तथा।४७०। स्थानात् स्थानान्तरोत्कर्षः, प्रत्याहारः प्रकीर्तितः । तालुनासाऽऽननद्वारैः, निरोधः शान्त उच्यते ॥८॥ अर्थ :- नाभि आदि स्थान से हृदय आदि स्थान में वायु को ले जाना; अर्थात् पवन को खींचकर एक स्थान से
दूसरे स्थान पर ले जाना 'प्रत्याहार' कहलाता है। तालु, नासिका और मुख के द्वारों से वायु का निरोध करना 'शांत' नाम का प्राणायाम है। शांत और कुंभक में इतना अंतर है कि कुंभक में पवन नाभिकमल में रोका जाता है और शांतप्राणायाम में ऐसा नियम नहीं है, बल्कि नासिका आदि निकलने के द्वारों से
इसमें पवन रोका जाता है ।।८।। ।४७१। आपीयोर्ध्व यदुत्कृष्य हृदयादिषु धारणम् । उत्तरः स समाख्यातो, विपरीतस्ततोऽधरः ॥९॥ अर्थ :- बाहर के वायु का पान करके और उसे ऊपर खींचकर हृदय आदि में स्थापित करना, 'उत्तर-प्राणायाम'
कहलाता है। इसके विपरीत वायु उपर से नीचे की ओर ले जाना 'अधर-प्राणायाम' कहलाता है ।।९।। व्याख्या : - यहां शंका करते हैं कि रेचक आदि में प्राणायाम कैसे हो सकता है? क्योंकि प्राणायाम में तो श्वासप्रश्वास की गति को रोकना होता है. इसका उत्तर देते हैं कि रेचक में उदर के वायु को खींचकर नासिका के द्वार पर रोकना होता है; अंदर जाने नहीं दिया जाता। इस दृष्टि से यह श्वास-प्रश्वास की गति विच्छेद रूप प्राणायाम कहलाता | है तथा पूरक में बाहर के वायु को धीरे-धीरे ग्रहण करके उदर में धारण करना होता है। इसमें भी श्वास-प्रश्वास रोकना या लेना नहीं होता है; अर्थात् गति-विच्छेद रूप प्राणायाम होता है, इसी तरह कुंभक आदि में भी जान लेना' ।।९।। रेचक आदि के फल कहते हैं।४७२। रेचनादुदरव्याधेः, कफस्य च परिक्षयः । पुष्टिः पूरकयोगेन, व्याधिघातश्च जायते ॥१०॥ ।४७३। विकसत्याशु हृत्पद्मं ग्रन्थिरन्तर्विभिद्यते। बलस्थैर्यविवृद्धिश्च, कुम्भकाद् भवति स्फुटम् ॥११॥ ।४७४। प्रत्याहाराद् बलं कान्तिः, दोषशान्तिश्च शान्ततः । उत्तराधरसेवातः, स्थिरता कुम्भकस्य तु ।।१२।। अर्थ :- रेचक-प्राणायाम से उदर की व्याधि का और कफ का विनाश होता है। पूरक प्राणायाम से शरीर पुष्ट
होता है तथा सर्वव्याधियों नष्ट होती है। कुंभक प्राणायाम करने से तत्काल हृदय-कमल विकसित होत है और अंदर की ग्रंथियों का भेदन होता है, बल की वृद्धि होती है और वायु की स्थिरता होती है। प्रत्याहार-प्राणायाम से शरीर में शक्ति और कांति उत्पन्न होती है, शांत नामक प्राणायाम से वात-पित्तकफ रूप त्रिदोष या सन्निपात (ज्वर) की शांति होती है, उत्तर और अधर प्राणायाम के सेवन से कुंभक
की स्थिरता होती है ।।१०-१२।। इन प्राणायामों से केवल प्राण पर विजय होता है, इतना ही नहीं है, बल्कि पंचवायुओं पर विजय करने में भी | ये कारणभूत है। इसी बात को कहते हैं।४७५। प्राणमपान-समानावुदानं व्यानमेव च । प्राणायामैर्जयेत् स्थान-वर्ण-क्रियाऽर्थबीजवित् ॥१३॥ अर्थ :- प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान यह पांच प्रकार का पवन-वायु है, प्रत्येक पवन का स्थान, वर्ण,
क्रिया अर्थ और बीज को जानकर योगी प्राणायाम के द्वारा इन पर विजय प्राप्त करे ।।१३।। व्याख्या :- १. श्वास-निश्वास का व्यापार प्राणवायु है, २. मलमूत्र और गर्भादि को बाहर लाने वाला अपानवायु है, ३. भोजन-पानी आदि को परिपक्व कर उसमें से उत्पन्न हुए रस को शरीर के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में पहुंचाने वाला वायु समानवायु है, ४. रसादि को ऊपर ले जाने वाला उदानवायु है और ५. संपूर्ण शरीर में व्यास रहने वाला व्यानवायु
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