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ध्यान के योग्य आसन, उनकी विधि एवं उपयोगिता
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक १३५ से १३६ से रहित हो, इस प्रकार मेरुदंड को सीधा रखकर ध्याता को ध्यान के लिए उद्यत होना
चाहिए।।१३५-१३६।। व्याख्या :- जिस आसन से लंबे समय तक बैठने पर भी समाधि विचलित न हो; इस तरह के सुखासन से ध्याता को बैठना चाहिए, दोनों ओठ मिलाकर रखे, नासिका के अग्रभाग पर दोनों आंखें टिका दे; दांत इस प्रकार रखे कि ऊपर के दांतों के साथ नीचे के दांतों का स्पर्श न हो, रजोगुण और तमोगुण से रहित हो, पलक झपकाए बिना चेहरा प्रसन्न रखे। पूर्व या उत्तर दिशा में मुख रखकर अथवा प्रभुप्रतिमा के सन्मुख अप्रमत्त होकर बैठे। 'अप्रमत्त' कहकर यहां ध्यान का मुख्य अधिकारी बतला रहे हैं। कहा भी है कि-अप्रमत्तसंयत का धर्मध्यान होता है। शरीर को सीधा अथवा मेरुदंड के समान निश्चल बनाकर ध्याता को ध्यान करने के लिए उद्यम करना चाहिए। इस प्रकार साधु और श्रावक-विषयक ध्यानसिद्धि के साधनभूत ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप रत्नत्रय का कथन किया है, दूसरे समग्र ध्यान के भेद आदि आगे अष्टम प्रकाश में बतलाये हैं ।।१३५-१३६।। ॥ इस प्रकार परमार्हत् श्रीकुमारपाल राजा की जिज्ञासा से आचार्यश्री हेमचंद्राचार्यसूरीश्वर-रचित
अध्यात्मोपनिषद् नामक पट्टबद्ध अपरनाम योगशाम का स्वोपज्ञविवरणसहित चतुर्थ प्रकाश संपूर्ण हुआ।