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" मंडलों का स्वरूप
___ योगशास्त्र पंचम प्रकाश श्लोक ४०-४७ ।५०२। ततोऽविद्या विलीयन्ते, विषयेच्छा विनिश्यति । विकल्पा विनिवर्तन्ते, ज्ञानमन्तर्विजृम्भते ॥४०॥ ___ अर्थ :- हृदयकमल में मन को रोकने से अविद्या (अज्ञान या मिथ्यात्व) का विनाश हो जाता है; इंद्रिय-विषयों
की अभिलाषा भी नष्ट हो जाती है, संकल्प-विकल्प चले जाते हैं और आत्मा में ज्ञान की वृद्धि
होती है ॥४०॥ मन और पवन को हृदय में स्थिर करने से स्वरूप ज्ञान प्रकट होता है।५०३।क्व मण्डले गतिर्वायोः संक्रमः क्व क्व विश्रमः? । का च नाडीति जानीयात्, तत्र चित्ते स्थिरीकृते ॥४१॥ अर्थ :- हृदय-कमल में मन को स्थिर करने पर वायु की गति किस मंडल में है? उसका किस तत्त्व में संक्रम
(प्रवेश) होता है? वह कहां जाकर विश्राम पाता है? और इस समय कौन-सी नाड़ी चल रही है? यह
जाना जा सकता है? ॥४१॥ अब मंडलों का निर्देश करते हैं।५०४। मण्डलानि च चत्वारि, नासिकाविवरे विदुः । भौमवारुणवायव्याग्नेयाख्यानि यथोत्तरम् ॥४२॥ अर्थ :- नासिका के विवर में चार मंडल होते हैं-१. भौम (पार्थिव) मंडल, २. वारुण मंडल, ३. वायव्य मंडल
और ४. आग्नेय मंडल जानना ।।४२।। पार्थिव मंडल का स्वरूप कहते हैं1५०५। .पृथिवीबीजसंपूर्णं, वज्रलाञ्छनसंयुतम् । चतुरस्रं तप्तस्वर्णप्रभं स्याद् भौममण्डलम् ॥४३॥ अर्थ :- पार्थिव मंडल पृथ्वी के बीज से परिपूर्ण, वज्र के चिह्न से युक्त, चौरस और तपाये हुए सोने के रंगवाला
क्षितिलक्षणयुक्त होता है ॥४३॥ यहां पार्थिवबीज 'अ' अक्षर है। कितने ही आचार्यों ने 'ल' और 'क्ष' भी माना है।
अब वारुणमंडल का स्वरूप कहते हैं१५०६। स्यादर्धचन्द्रसंस्थानं, वारुणाक्षरलाञ्छितम् । चन्द्राभममृतस्यन्दं सान्द्रं वारुणमण्डलम् ॥४४॥ अर्थ :- अष्टमी के अर्ध-चंद्र के समान आकार वाला, वारुण अक्षर 'घ' कार के चिह्न से युक्त, चंद्रसदृश
. उज्ज्वल और अमृत के झरने से व्यास वारुणमंडल होता है॥४४||
अब वायव्य मण्डल का स्वरूप कहते हैं।।५०७। स्निग्धाञ्जनघनच्छायं, सुवृत्तं बिन्दुसङ्कुलम् । दुर्लक्ष्यं पवनाक्रान्तं, चञ्चलं वायुमण्डलम्॥४५॥
अर्थ :- स्निग्धमिश्रित अंजन और मेघ के समान गाढ़, श्याम कान्तिवाला, गोलाकार, बिन्दु के चिह्न से व्यास, - मुश्किल से मालूम होने वाला, चारों ओर पवन से वेष्टित, पवनबीज 'य' कार से घिरा हुआ चंचल
वायुमंडल होता है ॥४५॥ अब आग्नेय मंडल का स्वरूप कहते हैं।५०८। ऊर्ध्वज्वालाञ्चितं भीमं, त्रिकोणं स्वस्तिकाऽन्वितम् । स्फुल्लिङ्गपिङ्गं तद्बीजं, ज्ञेयमाग्नेयमण्डलम्।।४६॥ अर्थ :- ऊपर की ओर फैलती हुई ज्वालाओं से युक्त, भयानक त्रिकोण वाली, स्वस्तिक के चिह्न से युक्त, अग्नि
की चिनगारी के समान पिंगलवर्ण वाला और अग्नि के बीज रेफ' से युक्त आग्नेय मंडल जानना
चाहिए ॥४६॥ अब अश्रद्धालु को बोध देने के लिए कहते हैं।५०९। अभ्यासेन स्वसंवेद्यं, स्यान्मण्डलचतुष्टयम् । क्रमेण सञ्चरन्नत्र, वायुर्जेयश्चतुर्विधः ॥४७॥ अर्थ :- इस विषय का अभ्यास करने से अनुभव द्वारा चारों मंडलों को जाना जा सकता है। इन चारों मंडलों
में संचार करने वाला वाय भी चार प्रकार का होता है। इसका क्रमशः वर्णन करते हैं
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