________________
वायु के शुभाशुभ फल
योगशास्त्र पंचम प्रकाश श्लोक ५८ से ६४ ।५२०। प्रवेश-समये वायुर्जीवो मृत्युस्तु निर्गमे । उच्यते ज्ञानिभिस्तादृक्फलमप्यनयोस्ततः ।।५८।। अर्थ :- वायु जब मंडल में प्रवेश करता है, तब उसे जीव कहते हैं और जब वह मंडल से बाहर निकलता है,
तब उसे मृत्यु कहते हैं। इसी कारण ज्ञानियों ने प्रवेश करते समय का फल शुभ और निकलते समय का फल अशुभ बताया। अर्थात्-पूरक वायु नासिका के अंदर प्रवेश करता हो और कोई प्रश्न करे तो वह कार्य सिद्ध होगा और रेचक वायु मंडल से बाहर निकलता हो और कोई प्रश्न करे तो वह कार्य सिद्ध
नहीं होगा ।।५८॥ अब नाड़ी के भेद से वायु का शुभ, अशुभ और मध्यम फल दो श्लोकों से कहते हैं।५२१। पथेन्दोरिन्द्रवरुणौ, विशन्तौ सर्वसिद्धिदौ । रविमार्गेण निर्यान्तौ, प्रविशन्तौ च मध्यमो ॥५९॥ ।५२२। दक्षिणेन विनिर्यान्तौ, विनाशायानिलानलौ । निःसरन्तौ विशन्तौ च, मध्यमा वितरेण तु ॥६०।। अर्थ :- चंद्र अर्थात् बांयी नासिका से प्रवेश करते हुए पुरंदर और वरुण वायु सर्वसिद्धियाँ प्रदान करते हैं, जबकि |
ये ही दोनों दाहिनी ओर से निकलते हुए विनाश कर होते हैं। और सूर्य अर्थात् दाहिनी नाड़ी से बाहर
निकलते और प्रवेश करते हुए ये दोनों वायु मध्यमफल देते हैं ।।५९-६०॥ अब नाड़ियों के लक्षण कहते हैं।५२३।इडा च पिङ्गला चैव, सुषुम्णा चेति नाडिकाः । शशि-सूर्य-शिवस्थानं, वाम-दक्षिण-मध्यगाः।।६१।। अर्थ :- बांयी ओर की नाड़ी इड़ा कहलाती है और उसमें चंद्र का स्थान है, दाहिनी ओर की नाड़ी पिंगला है;
उसमें सूर्य का स्थान है और दोनों के मध्य में स्थित नाड़ी सुषुम्णा है, इसमें मोक्ष-स्थान माना है ।।६१।। इन तीनों में वाय-संचार का फल दो श्लोकों द्वारा कहते हैं।५२४। पीयूषमिव वर्षन्ती, सर्वगात्रेषु सर्वदा । वामाऽमृतमयी नाडी सम्मताऽभीष्टसूचिका ॥६२।। ।५२५। वहन्त्यनिष्टशंसित्री, संह: दक्षिणा पुनः । सुषुम्णा तु भवेत् सिद्धि-निर्वाणफलकारणम् ॥६३।। - अर्थ :- शरीर के समस्त भागों में निरंतर अमृत वर्षा करने वाली और सभी मनोरथों को सूचित करने वाली बांयी
नाड़ी मानी गयी है तथा दाहिनी नाड़ी अनिष्ट को सूचित करने वाली और कार्य का विघात करने वाली होती है एवं सुषुम्णा नाड़ी अणिमादि अष्ट महासिद्धियों का और मोक्षफल का कारण रूप होती है ।।६२
६३।। भावार्थ :- कहने का तात्पर्य यह है कि सुषुम्णानाड़ी में ध्यान करने से थोड़े समय में ध्यान में एकाग्रता हो जाती है और लंबे समय तक ध्यान की परंपरा चालू रहती है। इस कारण इससे थोड़े समय में अधिक कर्मों का नाश होता है। अतः इसमें मोक्ष का स्थान रहा हुआ है। इसके अतिरिक्त सुषुम्णा नाड़ी में वायु की गति बहुत मंद होती है। अतः मन सरलता से स्थिर हो जाता है। मन और पवन की स्थिरता होने पर संयम की साधना में भी सरलता होती है। धारणा, ध्यान और समाधि को एक ही स्थल पर करना संयम है और ऐसा संयम ही सिद्धियों का कारण है। इस कारण सुषुम्णानाड़ी को मोक्ष और सिद्धियों का कारण बताया है ।।६२-६३।।
बांयी और दाहिनी नाड़ी चलती हो, तब कौन-सा कार्य करना चाहिए, उसे अब बताते हैं१५२६। वामैवाभ्युदयादीष्टशस्तकार्येषु सम्मता । दक्षिणा तु रताहार-युद्धादौ दीप्तकर्मणि ॥६४॥ अर्थ :- यात्रा, दान, विवाह, नवीन वस्त्राभूषण धारण करते समय गाँव. नगर व घर में प्रवेश करते समय,
स्वजन-मिलन, शान्तिकर्म, पौष्टिक कर्म, योगाभ्यास, राजदर्शन, चिकित्सा, मैत्री, बीज-वपन इत्यादि अभ्युदय और ईष्टकार्यों के प्रारंभ में बांयी नाड़ी शुभ होती है और भोजन, विग्रह, विषय-प्रसंग, युद्ध, मंत्र-साधना, दीक्षा, सेवाकर्म, व्यापार, औषध, भूतप्रेतादि-साधनों आदि तथा अन्य रौद्र कार्यों में सूर्यनाडी दाहिनी नाडी शुभ मानी गयी है ।।६४।।
402