Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

View full book text
Previous | Next

Page 420
________________ प्राणायाम आदि का स्वरूप योगशास्त्र सप्तम प्रकाश श्लोक २१-३१ ।४८३।प्राणापान-समानोदान-व्यानेष्वेषु वायुषु । यँ मैं मैं रौं लौँ बीजानि, ध्यातव्यानि यथाक्रमम् ॥२१॥ अर्थ :- प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान वायु को उस स्थान से जीतने के लिए पूरक, कुंभक और रेचकप्राणायाम करते समय क्रमशः 'मैं आदि बीजाक्षरों का ध्यान करना चाहिए। अर्थात् प्राणवायु को जीतने के समय 'मैं' बीज का, अपानवायु को जीतने के समय 'मैं का, समान को जीतने के समय 'व' का, उदान को जीतने के समय 'रौं' का और व्यान को जीतने के समय 'लौं' बीजाक्षर का ध्यान करना चाहिए। अर्थात् 'य' आदि अक्षरों की आकृति की कल्पना कर उसका जाप पूरक, कुंभक और रेचक करते समय करना चाहिए ।।२१।। अब तीन श्लोकों से प्राणादि-जय करने का लाभ बताते हैं।४८४। प्राबल्यं जठरस्याग्ने, दीर्घश्वासमरुज्जयौ । लाघवं च शरीरस्य, प्राणस्य विजये भवेत् ।।२२।। अर्थ :- प्राणवायु को जीतने से जठराग्नि प्रबल होती है, अविच्छिन्न रूप से श्वास की प्रवृत्ति चलती है, दम (श्वासरोग) नहीं होता और शेष वायु भी वश में हो जाती है, क्योंकि प्राणवायु पर सभी वायु आश्रित है। इससे शरीर हलका और फुर्तीला हो जाता है ।।२२।। तथा।४८५। रोहणं क्षतभङ्गादेः उदराग्नेः प्रदीपनम् । व!ऽल्पत्वं व्याधिघातः समानापानयोर्जये ॥२३॥ अर्थ :- समानवायु और अपानवायु को जीतने से घाव आदि जल्दी भर जाता है, टूटी हुई हड्डी जुड़ जाती है। आदि शब्द कहने से उस प्रकार के सभी शारीरिक दुःख नष्ट हो जाते हैं, जठराग्नि तेज हो जाती है, मल मूत्रादि अल्प हो जाते हैं और व्याधियाँ विनष्ट हो जाती है ।।२३।। तथा।४८६। उत्क्रान्तिर्वारिपङ्काद्यैश्चाबाधोदान-निर्जये । जये व्यानस्य शीतोष्णासंगः कान्तिररोगिता ॥२४॥ अर्थ :- उदानवायु वश में करने से योगी उत्क्रांति (अर्थात् मृत्यु के समय दश द्वार से प्राण त्याग) कर सकता है। पानी और कीचड़ आदि पर चलने से उसका स्पर्श नहीं होता; कांटों या अग्नि आदि पर निरुपद्रव रूप में वह सीधे मार्ग के समान चल सकता है। तथा व्यानवायु वश करने से शरीर में सर्दी-गर्मी का असर नहीं होता; शरीर की कांति बढ़ जाती है और निरोगता प्राप्त होती है ॥२४॥ - इस प्रकार प्रत्येक प्राण को जीतने का अलग-अलग फल बतलाया। अब सब प्राणों को जीतने का सामूहिक फल बताते हैं।४८७। यत्र-यत्र भवेत् स्थाने, जन्तो रोगः प्रपीडकः । तच्छान्त्यै धारयेत् तत्र प्राणादिमरुतः सदा।।२५।। अर्थ :- जीव के शरीर में जिस जिस भाग में पीड़ा करने वाला रोग उत्पन्न हुआ हो, उसकी शांति के लिए उस स्थान में प्राणादि वायु को हमेशा रोके रखना चाहिए। ऐसा करने से रोग का नाश होता है।।२५।। पूर्वोक्त बातों का उपसंहार करके अब आगे के साथ संबंध जोड़ते हैं। ।४८८। एवं प्राणादि-विजये, कृताभ्यासः प्रतिक्षणम् । धारणादिकमभ्यस्येत्, मनःस्थैर्यकृते सदा ॥२६॥ अर्थ :- इस प्रकार प्राणादिवायु को जीतने का बार-बार अभ्यास करके मन की स्थिरता के लिए हमेशा धारणा आदि का अभ्यास करना चाहिए ।।२६।। अब धारणा आदि की विधि पांच श्लोकों द्वारा कहते हैं||४८९। उक्तासन-समासीनो, रेचयित्वाऽनिलं शनैः । आपादाङ्गुष्ठपर्यन्तं, वाममार्गेण पूरयेत् ॥२७॥ ||४९०। पादाङ्गुष्ठे मनः पूर्वं रुद्ध्वा पादतले ततः । पा} गुल्फे च जङ्घायां, जानुन्यूरौ गुदे ततः ।।२८।। ।४९१। लिङ्गे नाभौ च तुन्दे च हृत्कण्ठ-रसनेऽपि च । तालु नासाग्र-नेत्रेषु च भ्रुवोर्भाले शिरस्यथ ।।२९।। ।४९२। एवं रश्मिक्रमेणैव, धारयन्मरुता सह । स्थानात् स्थानान्तरं नीत्वा यावद् ब्रह्मपुरं नयेत् ॥३०॥ ||४९३। ततः क्रमेण तेनैव, पादाङ्गुष्ठान्तमानयेत् । नाभिपद्मान्तरं नीत्वा, ततो वायुं विरेचयेत् ॥३१।। | अर्थ :- पूर्वोक्त (चौथे प्रकाश के अंत में बतलाये हुए किसी भी आसन से बैठकर धीरे-धीरे पवन बाहर निकाल | 398

Loading...

Page Navigation
1 ... 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494