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ध्यान कहाँ और कौन करे? आसन केसा हो?
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक १२१ से १२३ ही दत्तचित्त रहने और अनंतभवों में अनुभूत विषयों में अब तक अतृप्त मन वाले उन भवाभिनंदी आत्माओं को प्रशमामृत से तृप्ति होकर वीतरागदशा कैसे प्राप्त हो सकती है? बाल-वृद्धादि, जिन का चित्त विविधभय के कारण भयभीत बना हुआ है, उन्हें भय से एकांतिक आत्यंतिक मुक्त कैसे बनाया जा सकता है? तथा मृत्युमुख प्राप्त तथा अपने धन, मित्र, स्त्रीपुत्रादि के वियोग को सम्मुख देखते हुए एवं मरणांतिक कष्टानुभव करते हुए जीवों पर सकलभयरहित श्री जिनेश्वरप्रभु के वचनामृतों को कैसे छिड़का जाय? और कैसे उन्हें जन्म-जरा-मृत्यु आदि से निर्भयस्थान प्राप्त कराया जाय? इस प्रकार दुःख का प्रतिकार करने वाली बुद्धि करनी, साक्षात् प्रतीकार करना ऐसा नहीं; क्योंकि प्रतीकार करने की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति में नहीं होती; इस कारण यहां वैसी प्रतीकारबुद्धि का जागना ही करुणाभावना बतायी है। ___यदि अशक्यप्रतीकार की करुणा बुद्धि हो, तब तो 'सभी जीवों को संसार से मुक्त करने के बाद मैं मोक्ष में जाऊंगा;' इस प्रकार कहना वास्तविक करुणा नहीं, अपितु केवल वाणीविलास है। समस्त संसारी जीवों के लिए ऐसा होना अशक्य है। तथा अपने लिये मुक्ति में पहुंचने का कार्य भी असंभव है। एक तो स्वयं के संसार का उच्छेद होना और फिर समस्त |संसारी जीवों को मुक्ति प्रास होना असंभव है। इसलिए यह तो भोले लोगों को ठगना है। यह बद्ध की करुणा है। अतः उपर्युक्त करुणा करने हेतु हितोपदेश देना, देशकाल की अपेक्षा से अन्न, जल, आश्रय, वस्त्र, औषध आदि देकर दुःखितों पर उपकार करना भी करुणाभावना है ।।१२०।।
अब माध्यस्थ-भावना का स्वरूप कहते हैं||४४७। क्रूरकर्मसु निःशङ्क, देवता-गुरु-निन्दिषु । आत्मशंसिषु योपेक्षा, तन्माध्यस्थ्यमुदीरितम् ॥१२१।। अर्थ :- निःशंकता से क्रूर कार्य करने वाले, देव-गुरु की निंदा करने वाले और आत्मप्रशंसा करने वाले जीवों
पर उपेक्षा रखना माध्यस्थ्यभावना है ॥१२१।। व्याख्या :- अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण करने वाले, मदिरा आदि का पान करने वाले, परस्त्री सेवन आदि करने वाले, ऋषिहत्या, बाल-हत्या, स्त्रीहत्या, गर्भहत्या आदि क्रूरकर्म करने वाले और पाप से भय नहीं खाने वाले उपेक्षा के योग्य है। कई व्यक्ति कितनी ही दफा पाप करने के बाद पश्चात्ताप करके संवेग प्राप्त है; वे उपेक्षा करने के योग्य नहीं है। इसलिए कहा है कि चौतीस अतिशय वाले श्री वीतराग देव तथा उनके कहे अनुसार अनुष्ठानों का पालन करने वाले और उपदेश देने वाले गुरु महाराज की राग, द्वेष या अज्ञान के वश अथवा पहले किसी के बहकाने से निंदा करने वाले; इस प्रकार के दोष होने पर भी किसी प्रकार से वैराग्यदशा प्राप्त कर अपने दोष देखने वाले हों; वे उपेक्षा करने योग्य नहीं है। इसलिए कहा है कि सदोष, अपनी आत्मा की प्रशंसा करने वाले-अपनी आत्मा को अच्छी मानने वाले तथा जैसे मुद्गशैलिक पत्थर को पुष्करावर्त मेघ भी पिघला नहीं सकता, वैसे क्रूर कर्म करने वाले, देवगुरु की निंदा करने वाले और अपनी आत्मप्रशंसा करने वाले को उपदेश देकर सन्मार्ग में लाना अशक्य है, इसलिए उसके प्रति उपेक्षा रखना माध्यस्थ्यभावना है ॥१२१।।
जो यह कहा गया था कि चार भावनाएँ धर्मध्यान को मदद देने वाली है, उसी का विवेचन करते हैं।४४८। आत्मानं भावयन्नाभिर्भावनाभिर्महामतिः । त्रुटितामपि सन्धत्ते, विशुद्धध्यानसन्ततिम् ॥१२२।। __ अर्थ :- मैत्री आदि चार भावनाओं से अपनी आत्मा को भावित करने वाला महाबुद्धिशाली योगी टूटी हुई विशुद्ध
ध्यान-श्रेणी को फिर से जोड़ लेता है ॥१२२।। ध्यान करने के लिए किस प्रकार के स्थान की जरूरत है, उसे कहते हैं||४४९। तीर्थं वा स्वस्थताहेतु, यत्तद् वां ध्यानसिद्धये । कृतासनजयो योगी, विविक्तं स्थानमाश्रयेत् ।।१२३।। अर्थ :- आसनों का अभ्यास कर लेने वाला योगी ध्यान की सिद्धि के लिए तीर्थंकरों की जन्म, दीक्षा, कैवल्य
अथवा निर्वाणभूमि में जाये। यदि वहां जाने की सुविधा न हो तो किसी एकांत-स्थान का आश्रय
ले।।१२३।। व्याख्या :- श्री तीर्थकर भगवान् की जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान एवं निर्वाणकल्याणक-भूमि में ध्यान करना चाहिए,
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