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ध्यान स्वरूप
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ११४ से ११७ पर ही निष्कपता आती है, इसीलिए इनमें परस्पराश्रय-दोषों का अभाव होने से ये दोनों ऐसा नहीं है कि साम्य के बिना ध्यान नहीं हो सकता, ध्यान तो साम्य के बिना हो सकता है, मगर स्थिरता युक्त नहीं
होता, इसलिए एक दूसरे के कारण रूप है। साम्य की व्याख्या पहले कर चुके हैं ।।११४।। अब ध्यान के स्वरूप की व्याख्या करते हैं।४४१। मुहूर्तान्तर्मनःस्थैर्य, ध्यानं छद्मस्थयोगिनाम् । धयं शुक्लं च तद् द्वेधा, योगरोधस्त्वयोगिनाम्॥११५।। अर्थ :- छद्मस्थ-योगियों का अंतःमुहूर्तकाल तक ही मन का स्थिर रहना ध्यान है। वह ध्यान दो प्रकार का है,
प्रथम धर्मध्यान और दूसरा शुक्लध्यान। अयोगियों के तो योग का निरोध होता ही है ॥११५।। व्याख्या :- ध्यान करने वाले दो प्रकार के होते हैं-सयोगी और अयोगी। सयोगीध्याता भी दो प्रकार के हैं, छद्मस्थ और केवली। इनमें छद्मस्थ योगी का ध्यान एक आलंबन में ज्यादा से ज्यादा अंतर्मुहूर्त-(४८ मिनिट पर्यत) तक मन की स्थिरता-(एकाग्रता) पूर्वक हो सकता है। वह ध्यान छद्मस्थ योगी को दो प्रकार का होता है-धर्मध्यान और शुक्लध्यान। वह धर्मध्यान दस प्रकार के धर्मों से युक्त अथवा दशविध धर्मों से प्राप्त करने योग्य है और शुक्लध्यान समग्र कर्म-मल को क्षय करने वाला होने से शुक्ल-उज्ज्वल पवित्र निर्मल है अथवा शुक्ल का दूसरा अर्थ होता है-शुगं दुःखं क्लमयति-नश्यतीति शुक्लम्। अर्थात् शुग यानी दुःख के कारणभूत आठ प्रकार के कर्मों का जो नाश करता है, वह शुक्लध्यान है। सयोगी केवली को तो मन, वचन और काया के योग का निरोध करना-निग्रह करना होता है। यानी वह योगों के निरोध को ही ध्यान रूप जानता है। सयोगी केवली को योग के निरोध समय में ध्यान होता है, इससे अलग ध्यान नहीं होता। सयोगी केवली कुछ कम पूर्वकोटी तक मन, वचन और काया के योग-(व्यापार) युक्त ही विचरते हैं। निर्वाण के समय में योग का निरोध करते हैं। यहां शंका करते हैं कि 'छद्मस्थ योगी को यदि अंतर्मुहूर्तकाल तक ध्यान की एकाग्रता रहे तो उसके बाद क्या स्थिति होती है?' ।।११५।।
उसे कहते हैं|४४२। मुहूर्तात् परतश्चिन्ता, यद्वा ध्यानान्तरं भवेत्।बह्वर्थसङ्क्रमे तु स्याद् दीर्घाऽपि ध्यान-सन्ततिः ॥११६।। - अर्थ :- एक पदार्थ में मुहूर्तकाल तक ध्यान व्यतीत होने के बाद वह ध्यान स्थिर नहीं रहता, फिर वह चिंतन
करेगा अथवा आलंबन की भिन्नता से दूसरा ध्यान करेगा, परंतु एक पदार्थ में एक मुहूर्त से अधिक स्थिर नहीं रह सकता, क्योंकि उसका ऐसा ही स्वभाव है। इस तरह एक अर्थ से दूसरे अर्थ का आलंबन करता है और तीसरे का आलंबन लेकर ध्यान करता है, फिर चौथे को इस तरह लंबे समय तक ध्यान की परंपरा चालू रहती है। मुहूर्तकाल के बाद प्रथम ध्यान समास होता है, बाद में दूसरे अर्थ का आलंबन |
करता है इस तरह ध्यान की वृद्धि करने के लिए भावना करनी चाहिए।।११६।। उसी बात को कहते हैं||४४३। मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यानि नियोजयेत् । धर्म्यध्यानमुपस्कर्तुं, तद्धि तस्य रसायनम्।।११७।। अर्थ :- धर्मध्यान टूट जाता हो तो मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थभावना में मन को जोड़ देना चाहिए।
क्योंकि जरा से जर्जरित शरीर वाले के लिए जैसे रसायन उपकारी होता है, वैसे ही धर्मध्यान के लिए मैत्री
आदि भावना पुष्ट रूप रसायन है ।।११७।। । व्याख्या :- दोनों ओर से स्नेहभाव को मैत्री कहते हैं। अतः जगत् के सारे जीवों पर स्नेह रखना मैत्रीभावना है, अपने से अधिक गुणीजनों पर प्रसन्नता रखना, उन्हें देखकर चेहरा प्रफुल्लि हो जाना; उनके प्रति हृदय में भक्ति | (अनुराग) प्रकट करना प्रमोदभावना है। दीन, दुःखी, अनाथ, विकलांग एवं अशरण जीवों के प्रति
करुणाभावना अथवा अनुकंपाभावना है। राग और द्वेष दोनों के मध्य में रहना माध्यस्थ्य-भावना है। अर्थात् राग-द्वेष|रहित भावना माध्यस्थ्य या उपेक्षाभावना है। इन चार भावनाओं को विभिन्न आत्माओं के साथ किसलिए जोडें? इसके उत्तर में कहते हैं यदि धर्मध्यान टट जाता हो तो उसे जोड़ने के लिए जैसे वद्धावस्था में निर्बल शरीर को रसायन-शक्ति
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