Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 408
________________ बोधि दुर्लभ भावना योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक १०८ से १०९ होना है। इससे जीव एकेन्द्रियजातिय स्थावर-पर्याय को छोड़कर त्रस-पर्याय पा लेता है, या पंचेन्द्रिय-तिर्यच हो जाता है ।।१०७।। ।४३४। मानुष्यमार्यदेशश्च, जातिः सर्वाक्षपाटवम् । आयुश्च प्राप्यते तत्र, कथञ्चित्कर्मलाघवात् ॥१०८।। अर्थ :- उसके बाद अधिक कर्मों से अत्यधिक हलके (लघु) होने पर जीव को मनुष्य-पर्याय, आर्यदेश तथा उत्तम जाति में जन्म, पांचों इंद्रियों की परिपूर्णता और दीर्घ आयुष्य की प्राप्ति होती है ।।१०८॥ व्याख्या :- विशेष प्रकार से कर्मों के लाघव (हलकेपन) के कारण किसी प्रकार स्वयंभूरमण समुद्र में युगछिद्र में कील आ जाने (के न्याय) की तरह मनुष्यत्व प्राप्ति के बाद शक, यवन आदि अनार्यदेश के अतिरिक्त मगधादि आर्यदेश में जन्म होता है, आर्यदेश मिलने पर भी अन्त्यज आदि नीच जाति से रहित उत्तमजाति-कुल में उसका जन्म होता है। उत्तमजाति-कुल मिलने पर भी समस्त इंद्रियों की परिपूर्णता तथा सर्वेन्द्रियपटुता के साथ लंबा आयुष्य तभी मिलता है, जब अशुभकर्म कम हुए हों, उपलक्षण से पुण्य की वृद्धि हुई हो। इतना होने पर ही इन सभी की प्राप्ति हो सकती है। कम आयुष्य वाला इसलोक या परलोक के कार्य करने में समर्थ नहीं हो सकता, श्री वीतराग भगवान् ने भी आयुष्यमान् गौतम! संबोधन करके दूसरे गुणों के साथ लंबी आयु को मुख्यता दी है ।।१०८।। ।४३५। प्राप्तेषु पुण्यतः श्रद्धा-कथकश्रवणेष्वपि । तत्त्वनिश्चयरूपं तद्, बोधिरत्नं सुदुर्लभम् ॥१०९।। अर्थ. :- कर्मों के लाघव (हलकापन) से और पुण्य अर्थात् शुभकर्म के उदय से धर्माभिलाषा रूपी श्रद्धा, धर्मोपदेशक गुरुमहाराज और उनके वचन-श्रवण करने की प्राप्ति होती है। परंतु यह सब होने पर भी तत्त्व-निश्चय रूप (अथवा तत्त्व रूप) देव, गुरु और धर्म के प्रति दृढ़ अनुराग, तद् रूप बोधि (सम्यक्त्वरत्न की प्राप्ति) होना अत्यंत कठिन है ।।१०९।। "व्याख्या :- स्थावर से त्रसत्व अतिदुर्लभ है, इससे बोधिरत्न अतिदुर्लभ है। यहां दुर्लभम् के पूर्व 'सु' शब्द बोधिरत्न की अत्यंत दुर्लभता बताने हेतु प्रयुक्त है। मिथ्यादृष्टि भी त्रसत्व आदि से धर्मश्रवण की भूमिका तक अनंत बार पहुंच जाता है; परंतु वह बोधिरत्न की प्राप्ति नहीं कर सकता। मोक्षवृक्ष का बीज सम्यक्त्व है। इस विषय के आंतरश्लोकों का भावार्थ कहते हैं-इस जैनधर्मशासन में राज्य मिलना, चक्रवर्ती होना दुर्लभ नहीं| कहा, किन्तु बोधिरत्न की प्राप्ति होना अत्यंत दुर्लभ बताया है। सभी जीवों ने जगत् के सभी भाव पहले अनंत बार प्राप्त किये हैं, परंतु बोधिरत्न कभी प्राप्त नहीं किया, क्योंकि उनका भव-भ्रमण चालू रहा; और अनंतानंत पुद्गलपरावर्तनकाल बीत जाने के बाद जब अर्धपुद्गलपरावर्तनकाल शेष रहता है, संसार के सभी शरीरधारी जीवों के सर्वकर्मों की अंतः कोटाकोटी स्थिति रह जाती है, तब कोई जीव ग्रंथि का भेदन कर उत्तम बोधिरत्न की प्राप्ति करता| है। कितने ही जीव यथाप्रवृत्तिकरण करके ग्रंथि के निकट-प्रदेश में आते हैं, परंतु बोधिरत्न की प्राप्ति किये बिना वापिस चले जाते हैं। कितने ही जीव बोधि-रत्न की प्राप्ति करते हुए वापिस गिर जाते हैं और फिर भवचक्र में भ्रमण करते रहते हैं। कुशास्त्रों का श्रवण, मिथ्यादृष्टियों के साथ संग, कुवासना, प्रमाद का सेवन इत्यादि कार्य बोधिरत्न का नाश करते हैं। यद्यपि चारित्र की प्राप्ति को दुर्लभ कहा है, परंतु वह बोधिप्राप्ति होने पर ही सफल है, उसके बिना कोरी चारित्ररत्न प्राप्ति निष्फल है। अभव्य जीव भी चारित्र प्राप्त कर ग्रैवेयक देवलोक तक जाता है; परंतु बोधि के बिना वह निर्वृतिसुख नहीं प्राप्त कर सकता। बोधिरत्न नहीं प्राप्त करने वाला चक्रवर्ती भी रंक के समान है और बोधिरत्न प्राप्त करने वाला रंक भी चक्रवर्ती से बढ़कर है। सम्यक्त्व-प्राप्ति करने वाला जीव संसार में कदापि अनुराग नहीं करता; वह ममतारहित होने से मुक्ति की आराधना अर्गला के बिना (निराबाध) करता है। जिस किसी ने पहले इस मुक्तिपद को प्राप्त किया है, और जो आगे प्राप्त करेंगे और वर्तमानकाल में जो भी प्राप्त कर रहे हैं, वह सब अनुपम प्रभाव और वैभव स्वरूप बोधिरत्न का प्रभाव है। इसलिए इस बोधिरत्न की उपासना करो, इसी की स्तुति करो, इसी का श्रवण करो; दूसरे पदार्थ से क्या प्रयोजन है? इस प्रकार बोधिभावना पूर्ण हुई ।।१०९।। 386

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