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लोक का विशेष स्वरुप, बोधि दुर्लभ भावना
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक १०६ से १०७ भी प्रकार से मैथुन-सेवन नहीं होता, परंतु प्रवीचार करने वाले देवों से प्रवीचार नहीं करने वाले देव अनंतगुना सुख भोगने वाले होते हैं। इस तरह लोक के तीन भेद हैं-अधोलोक, तिर्यग्लोक और ऊर्ध्वलोक। इस लोक के मध्य भाग में एक राज-प्रमाण लंबी-चौड़ी ऊपर नीचे मिलाकर चौदह राज लोक प्रमाण वाली त्रसनाडी है, जिसमें त्रस और स्थावर जीव रहते हैं और त्रसनाडी के बाहर केवल स्थावर जीव ही होते हैं ॥१०५।।
___ अब लोक का विशेष स्वरूप कहते हैं।४३२। निष्पादितो न केनापि, न धृतः केनचिच्च सः । स्वयंसिद्धो निराधारो, गगने किन्त्ववस्थितः ॥१०६।। अर्थ :- इस लोक को न किसी ने बनाया है और न किसी ने धारण कर रखा है। यह अनादिकाल से स्वयंसिद्ध
है और आधार के बिना आकाश पर स्थित है ।।१०६।। व्याख्या :- प्रकृति. ईश्वर. विष्ण, ब्रह्मा, पुरुष आदि में से किसी ने भी इस लोक (जगत्) को बनाया नहीं है। प्रकृति अचेतन होने से उसमें कर्तृत्व नहीं हो सकता। ईश्वर आदि को प्रयोजन नहीं होने से उनका भी कर्तृत्व नहीं है। यदि कोई कहे-उन्होंने लोक क्रीड़ा के लिए बनाया है तो यह कथन भी यथार्थ नहीं है, क्योंकि क्रीड़ा तो रागी में अथवा बचपन में होती है। यदि यह कहो कि 'उनमें तो क्रीड़ासाध्य प्रीति शाश्वत है;' तब तो क्रीड़ा के निमित्त से उनको प्रीति मानने पर तो पहले अतृप्ति भी थी ऐसा मानना होगा। यदि उन्होंने दया से लोक को उत्पन्न किया है तो सारा जगत् ही सुखी होना चाहिए, कोई भी दुःखी नहीं होना चाहिए। 'सुख-दुःख कर्म के अधीन है' ऐसा कहते हैं तो फिर कर्म ही कारण है और ऐसा मानने से उनकी स्वतंत्रता का नाश होता है। जगत में कोई दुःखी, कोई सुखी, कोई राजा, कोई रंक. कोई निरोगी-रोगी. संयोगी-वियोगी. धनवान-दरिद आदि भावों की विचित्रता कर्म के कारण है, तब तो ईश्वरादि की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। अब कोई यह कहें कि 'उन्होंने प्रयोजन बिना जगत् का निर्माण किया है, तो वह कथन भी अयक्त है. प्रयोजन बिना बालक भी कोई प्रवत्ति नहीं करता।' इससे सिद्ध हआ कि इस लोक को किसी ने बनाया नहीं है और न किसी ने धारण किया है। कितने ही पौराणिक ऐसा कहते हैं 'शेषनाग, कूर्म, वराह आदि ने इस लोक को धारण कर रखा है; तो उनसे पछा जाये कि शेषनाग आदि को किसने धारण कर रखा है? उत्तर मिलता है कि आकाश ने। तो फिर आकाश को किसने धारण किया है? वह स्वयं ही प्रतिष्ठित है।' ऐसा उत्तर मिलने पर उन्हें कहना कि 'लोक भी इसी तरह आधार के बिना आकाश में स्थिर है।' इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि यह जगत् किसी ने भी उत्पन्न नहीं किया, स्वयंसिद्ध है; किसी ने धारण नहीं कर रखा है। शंका करते हैं कि 'आधार के बिना लोक रहेगा कहां? उत्तर देते हैं-आकाश में।' परंतु अवस्थित आकाश रूप में ही यह लोक आकाश में प्रतिष्ठित रहता है।
इस संबंधी आंतरश्लोकों का भावार्थ कहते हैं-शंका करते हैं कि 'लोक-विचारणा को भावना क्यों कही गयी?' उत्तर देते हैं कि 'इससे निर्ममत्व परिणाम होते हैं; सुनो; सुख के कारण किसी भाव में बार-बार मन में मूर्छा पैदा होती है तो इस लोकभावना से उसे अत्यंत दूर कर सकते हैं।' हमने 'ध्यानशतक' में कहा है कि 'पृथ्वी, द्वीप, समुद्र आदि धर्मध्यान का विषयभूत है।' इसके बिना साधक लोकभावना का चिंतन नहीं कर सकता। श्री जिनेश्वर-कथनानुसार लोक-रूपी पदार्थों का निःशंक निश्चय होने के बाद अतीन्द्रिय मोक्षमार्ग में जीवों को श्रद्धा रखनी चाहिए। इति लोकभावना।।१०६।। ____ अब तीन श्लोकों से बोधिदुर्लभभावना कहते हैं।४३३। अकामनिर्जरारूपात्, पुण्याजन्तोः प्रजायते। स्थावरत्वात् त्रसत्वं वा, तिर्यक्त्वं वा कथञ्चन।।१०७।। अर्थ :- अकामनिर्जरा रूपी पुण्य से जीव को स्थावर पर्याय से त्रस पर्याय प्राप्त होता है अथवा वह तिर्यंचगति
प्राप्त करता है ।।१०७।। व्याख्या :- पर्वत के नदी-प्रवाह में बहता हुआ पत्थर ठोकरें खाता-खाता अपने आप गोलमटोल बन जाता है, उसी प्रकार आये हुए अप्रत्याशित दुःख को बिना इच्छा के सहन करने से अकामनिर्जरा होती है। अर्थात् आत्मा के साथ लगे हुए बहुत-से कर्म नष्ट हो जाते हैं। यह पुण्यप्रकृति का स्वरूप नहीं है, अपितु आत्मा का कर्म के बोझ से हलका
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