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देवलोक का वर्णन
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक १०५ समान चंद्राकार आनत और प्राणतकल्प है। उसमें प्राणतवासी उसी नाम के दो कल्प के एक ही इंद्र है, उसके ऊपर उसी तरह चंद्राकारसमान गोल आरण और अच्युत है। वहां अच्युतकल्पवासी उसी नाम से दो कल्प के एक इंद्र है। | उसके बाद के देवलोक के सभी देव अहमिन्द्र है। इसमें प्रथम दो कल्प घनोदधि के आधार पर रहे। कल्प वायु के आधार पर रहे हैं, उसके बाद तीन कल्प घनोदधि और घनवात के आधार पर रहे हैं, उनके ऊपर के कल्प आकाश के आधार पर टिके हुए हैं। इन कल्पोपपन्न देवों में इंद्र, सामानिक त्रायस्त्रिंश, पारिषद्य, आत्म-रक्षक, लोकपाल, सैनिक, प्रकीर्णक, आभियोगिक, किल्बिषिक इस प्रकार देवताओं के दस विभाग है, उसमें इंद्र सामानिक आदि नौ के स्वामी है। सामानिकदेव, प्रधान, पिता, गुरु, उपाध्याय बड़ों के समान है, केवल इंद्र पद से रहित है। त्रायस्त्रिंश मन्त्री और पुरोहित के स्थान के समान है। पारिषद्य देव मित्र के समान, आत्मरक्षकदेव अंगरक्षकदेव के समान है, लोकपालदेव कोतवाल अथवा दूतकार्य करने वाले होते हैं, अनीक देव सैनिक का कार्य करने वाले, उनके अधिपति सेनाधिपति का कार्य करने वाले होते हैं। उन्हें भी अनीक देवों में समझना चाहिए। प्रकीर्णकदेव नगर, जन और देशवासी के समान देव है, अभियोगिक देव दास-सेवक के समान आज्ञापालन करने वाले देव हैं, किल्बिषिक देव अन्त्यजसमान है। व्यंतर और ज्योतिष्क देवलोक में त्रायस्त्रिंश और लोकपाल देव नहीं होते, इनके अलावा सभी देव वहां होते हैं।
सौधर्मदेवलोक में बत्तीस लाख विमान होते हैं, ईशान में २८ लाख, सनत्कुमार में १२ लाख, माहेन्द्र में ८ लाख, ब्रह्मलोक में ४ लाख, लांतक में ५० हजार, शुक्र में ४० हजार, सहस्रार में ६ हजार, आनत और प्राणत में चार सौ, आरण और अच्युत में तीन सौ विमान है, पहले तीन ग्रैवेयक में एक सौ ग्यारह, बीच के तीन ग्रैवेयक में एक सौ सात, ऊपर के तीन ग्रैवेयक में एक सौ विमान है, अनुत्तर के पांच ही विमान है। इस तरह कुल ८४९७०२३ विमान है। विजयादि चार अनुत्तरविमानवासी देवों के आखिर दो भव शेष रहते हैं। और सर्वार्थसिद्ध देवों का तो एक जन्म शेष रहता है। सौधर्म देवलोक से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक देवों की आयु, स्थिति प्रभाव, सुख, कांति, लेश्या, विशुद्धि इंद्रियों के विषय, अवधिज्ञान आगे से आगे उत्तरोत्तर बढ़कर होते हैं। गति, शरीर परिग्रह और अभिमान से वे उत्तरोत्तर हीनतर होते हैं। श्वासोच्छ्वास तो सर्वत्र जघन्यस्थिति वाला होता है, भवनपति आदि देवों का सात स्तोक के बाद और आहार एक उपवास जितने समये के बाद होता है। पल्योपमस्थिति के देवों का उच्छ्वास एक दिन के अंदर और दो से नौ दिन में आहारग्रहण का समय होता है। जिन देवों का जितने सागरोपम का आयुष्य होता है वे उतने पाक्षिक के बाद उच्छ्वास लेते हैं और उतने हजार वर्ष में आहार लेते हैं। देवताओं को प्रायः सातावेदनीय कर्म होते हैं, कभी असातावेदनीय होता भी है तो वह केवल अंतमुहूर्त समय तक का होता है; अधिक नहीं।
देवियों की उत्पत्ति दूसरे ईशान देवलोक तक ही होती है। किंतु देवियों को जाना हो तो बारहवें अच्युत देवलोक तक जा सकती है। अन्य मतवाले तापस आदि ज्योतिषदेवलोक तक, पंचेन्द्रिय तिर्यच आठवें सहस्रारकल्प तक, मनुष्य श्रावक बारहवें अच्युतदेवलोक तक, श्री जिनेश्वरभगवान का चारित्र-चिह्न अंगीकार करने वाला, मिथ्यादृष्टि, यथार्थ समाचारी पालन करने वाला नौवे ग्रैवेयक तक, चौदह पूर्वधर ब्रह्मलोक से सर्वार्थसिद्ध तक, अविराधित व्रत वाले साधु और श्रावक जघन्य सौधर्मदेवलोक तक उत्पन्न हो सकते हैं।
भवनवासी देव आदि से दूसरे ईशान देवलोक तक के देवता शरीर से संभोगसुख भोगते हैं, ये देव संक्लिष्ट कर्म वाले मनुष्यों के समान मैथुनसुख में गाढ़ आसक्त बनकर उसमें तीव्रता से तल्लीन रहते हैं और काया के परिश्रम से सर्व | अंगों का स्पर्शसुख प्राप्त करके प्रीति करते हैं। आगे तीसरे-चौथे कल्पवासी देव केवल स्पर्शसुख के उपभोक्ता होते हैं, पांचवें, छढे कल्प के देव देवियों का रूप देखकर, सातवें-आठवें देवलोक के देव देवियों का शब्द सुनकर, नौवे से बारहवें तक चार देवलोक के देव मन से देवी का चिंतन करने से तृप्त हो जाते हैं। उसके बाद के देवों में किसी 1. इस विषय में मतांतर है। 2. इस विषय में भी मतभेद है। आठवे देवलोक तक ही गमन है। | 3. मन से चिंतन का अर्थ देवी का आगमन माना होगा।
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