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समताधिकार स्वरुप
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ११० से ११४ निर्ममत्व की कारणभूत भावनाओं का उपसंहार करते हुए प्रस्तुत समताधिकार से उसका संबंध जोड़ते हैं।४३६। भावनाभिरविश्रान्तमिति, भावितमानसः । निर्ममः सर्वभावेषु, समत्वमवलम्बते ॥११०॥ अर्थ :- इन बारह भावनाओं से जिसका मन निरंतर भावित रहता है; वह सभी भावों पर ममता-रहित होकर
समभाव का आलंबन लेता है ॥११०।। समभाव का फल कहते है।४३७। विषयेभ्यो विरक्तानां, साम्यवासितचेतसाम् । उपशाम्येत् कषायाग्निर्बोधिदीपः समुन्मिषेत् ।।१११।। अर्थ :- विषयों से विरक्त और समभाव से युक्त चित्त वाले योगी पुरुषों की कषाय रूपी अग्नि शांत हो जाती है
और सम्यक्त्व रूपी दीपक प्रकट हो जाता है ।।१११।। भावार्थ :- इस प्रकार इंद्रियों पर विजय से कषायों पर विजय होती है, मन की शुद्धि से इंद्रियों पर विजय प्राप्त होती है, रागद्वेष पर जय से मनःशुद्धि होती है, समता से रागद्वेष पर विजय होती है और भावना के हेतुस्वरूप निर्ममत्व से समता-प्राप्ति का प्रतिपादन किया है ।।१११ ।।
अब आगे का प्रकरण कहते हैं||४३८। समत्वमवलम्ब्याथ, ध्यानं योगी समाश्रयेत् । विना समत्वमारब्धे, ध्याने स्वात्मा विडम्ब्यते ।।११२।। अर्थ :- समत्व का अवलंबन लेने के बाद योगी को ध्यान का आश्रय लेना चाहिए। समभाव की प्राप्ति के बिना
ध्यान के प्रारंभ करने पर अपनी आत्मा विडम्बित होती है। क्योंकि बिना समत्व के ध्यान में भलीभांति
- प्रवेश नहीं हो सकता ।।११२।। व्याख्या :- उसके बाद योगी-मुनि अपने चित्त में दृढ़तापूर्वक समता का अवलंबन लेकर ध्यान में प्रवेश करता है। ध्यान का अधिकार आगे कहेंगे। यद्यपि ध्यान और समता दोनों एक ही हैं, फिर भी विशेष प्रकार की समता को ध्यान कहते हैं। ___जिस समता का बार-बार अभ्यास किया जाय, ऐसी समता ध्यान-स्वरूप है। इसी बात को व्यतिरेक से कहते हैं। अनुप्रेक्षा आदि के बल से प्राप्त करने योग्य समता के बिना ध्यान प्रारंभ किया जाय तो आत्मा विडंबना प्राप्त करता है। इसलिए जिसने इंद्रियों पर काबू नहीं किया, जिसने मन की शुद्धि नहीं की, रागद्वेष को नहीं जीता; निर्ममत्व प्रकट नहीं किया तथा समता का अभ्यास नहीं किया और वह मूढ़ मनुष्य गतानुगतिक-परंपरा से ध्यान करता है, वह दोनों लोक के मार्ग से पतित होता है। इसलिए यथाविधि ध्यान किया जाय तो आत्मा की विडंबना नहीं होगी और वह ध्यान आत्मा के लिए हितकारी होता है ।।११२।।
इसी बात को कहते हैं||४३९। मोक्षः कर्मक्षयादेव, स चात्मज्ञानतो भवेत् । ध्यानसाध्यं मतं तच्च, तद्ध्यानं हितमात्मनः ॥११३।। अर्थ :- कर्मों के क्षय से मोक्ष होता है, कर्मक्षय आत्मज्ञान से होता है। इस बात में विवाद नहीं है। आत्मज्ञान
ध्यान से सिद्ध होता है। परपदार्थ के योग का त्याग और आत्मस्वरूप योग में रमण, यह दोनों ध्यान
से सिद्ध हो सकते हैं। इसलिए ध्यान आत्मा के लिए हितकारी माना जाता है ।।११३।। यहां शंका करते हैं कि पहले तो अर्थ की प्राति के लिए और अनर्थपरिहार के लिए साम्य को बताया, अब ध्यान को आपने आत्महित करने वाला कहा, तो इन दोनों बातों में मुख्यता किसकी मानी जाय? उत्तर देते हैं कि दोनों की प्रधानता है; इन दोनों में अंतर नहीं है ।।१०३।।
उसी को कहते हैं१४४०। न साम्येन विना ध्यानं, न ध्यानेन विना च तत् । निष्कम्पं जायते तस्माद्, द्वयमन्योऽन्यकारणम् ॥११४।।
अर्थ और व्याख्या :- साम्य के बिना ध्यान नहीं होता और ध्यान के बिना साम्य सिद्ध नहीं होता। दोनों के होने
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