Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

View full book text
Previous | Next

Page 413
________________ विविध आसन और उनके लक्षण योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक १२३ से १२८ | ऐसे स्थान के अभाव में मन की शांति के लिए पर्वत की गुफा आदि या ध्यान करने योग्य स्त्री-पशु-नपुंसक रहित स्थान | पसंद करना चाहिए। कहा भी है कि 'साधुओं को हमेंशा युवति, नपुंसक, कुशील मनुष्य आदि के संसर्ग से रहित एकांत | स्थान का आश्रय लेना चाहिए और विशेष रूप से ध्यानकाल में तो ऐसा ही स्थान चुनना चाहिए। 1 जिन्होंने अपना योग | स्थिर कर लिया हो और जिनका मन ध्यान में निश्चल है ऐसे मुनियों के लिए वसति वाले गांव में या शून्य अरण्य में कोई अंतर नहीं है। इसलिए ध्यानकर्ता को ऐसे स्थान में ध्यान करना चाहिए; जहां चित्त में समाधि रहे, मन, वचन और काया के योग की एकाग्रता रहे तथा जो स्थान भूतों और जीवों के उपद्रव से रहित हो।' 'स्थान' शब्द से यहां उपलक्षण से काल भी जानना । कहा है कि जिस काल में उत्तम योग-समाधि प्राप्त होती हो, वह काल ध्यान के लिए | उत्तम है। ध्यान करने वाले के लिए दिन या रात्रि का कोई नियमित काल नहीं माना गया है। निष्कर्ष यह है कि ध्यान | की सिद्धि के लिए विशिष्ट आसनों का अभ्यासी योगी योग्य विविक्त, शांत व एकांत स्थान का आश्रय ले । योगी किस प्रकार का होता है? इसका लक्षण आगे बतायेंगे ।। १२३ ।। अब आसनों का निर्देश करते हैं ||४५०। पर्यङ्क - वीर-वज्राब्ज - भद्र - दण्डासनानि च । उत्कटिका - गोदोहिका - कायोत्सर्गस्तथाऽऽसनम्॥ १२४॥ अर्थ :- १. पर्यंकासन, २. वीरासन, ३. वज्रासन, ४. पद्मासन, ५. भद्रासन, ६. दंडासन, ७. उत्कटिकासन, ८. गोदोहिकासन, ९. कायोत्सर्गासन आदि आसनों के नाम हैं ।। १२४ ।। अब क्रमशः प्रत्येक आसन का स्वरूप कहते हैं ।४५१। स्याज्जङ्घयोरधोभागे, पादोपरि कृते सति । पर्यङ्को नाभिगोत्तान - दक्षिणोत्तर - पाणिकः ॥१२५॥ दोनों जंघाओं के नीचले भाग पैरों के ऊपर रखने पर दाहिना और बांया हाथ नाभि के पास ऊपर दक्षिण और उत्तर में रखने से 'पर्यङ्कासन' होता है ।। १२५ ।। अर्थ : शाश्वत जिन - प्रतिमाओं का और श्री महावीर भगवान् के निर्वाण - समय में इसी प्रकार पर्यंकासन था। पतंजलि ने और हाथ लंबे करके सो जाने की स्थिति को पर्यकासन बताया है ।। १२५ ।। जानु अब वीरासन का स्वरूप कहते हैं ।४५२। वामोंऽह्रिर्दक्षिणोरूर्ध्व - वामोरूपरि दक्षिणः । क्रियते यत्र तद्वीरोचितं वीरासनं स्मृतम् ॥ १२६ ॥ अर्थ :- बांया पैर दाहिनी जांघ पर और दाहिना पैर बांयी जांघ पर जिस आसन में रखा जाता है, वह वीरोचित आसन, वीरासन कहलाता है ।। १२६ ।। यह आसन तीर्थंकर आदि वीरपुरुषों के लिए उपयुक्त है, कायरों के लिए यह आसन नहीं है। कुछ लोग वीरासन | को पर्यकासन के समान दो हाथ आगे स्थापन करने की स्थिति-सा बताकर पद्मासन भी कहते हैं। एक जांघ पर एक पैर रखा जाय उसे अर्धपद्मासन कहते हैं ।। १२६ ।। अब वज्रासन का लक्षण कहते हैं अर्थ : । ४५३। पृष्ठे वज्राकृतीभूते दोर्भ्यां वीरासने सति । गृह्णीयात् पादयोर्यत्राङ्गुष्ठौ वज्रासनं तु तत्॥१२७॥ पूर्व कथित वीरासन करने के बाद वज्र की आकृति के समान दोनों हाथ पीछे रखकर, दोनों हाथों से पैर के अंगूठे पकड़ने पर जो आकृति बनती है; वह वज्रासन कहलाता है ।। १२७ ।। कितने ही आचार्य इसे वैतालासन भी कहते हैं। मतांतर से वीरासन का लक्षण कहते हैं।४५४। सिंहासनाधिरूढस्यासनापनयेन सति । तथैवावस्थितिर्या तामन्ये वीरासनं विदुः ॥ १२८॥ अर्थ : कोई पुरुष जमीन पर पैर रखकर सिंहासन पर बैठा हो और पीछे से उसका सिंहासन हटा दिया जाये; उससे उसकी जो आकृति बनती है, वह 'वीरासन' है। सिद्धांतकारों ने कायक्लेशतप के प्रसंग में इस आसन को बताया है ।। १२८ ।। 1. जो लोग सामूहिक रूप से ध्यान की बात करते हैं, वे इस पर सोचें। समूह में ध्यान कैसे हो सकता है ? 391

Loading...

Page Navigation
1 ... 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494