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मैत्र्यादि भावना स्वरूप
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ११८ से १२० | प्रदान करती है वैसे ही मैत्री आदि चार भावनाएँ भी टूटे हुए धर्मध्यान को पुष्ट करती है ।।११७।।
इन चार भावनाओं में से प्रथम मैत्री का स्वरूप कहते हैं||४४४।मा कार्षीत् कोऽपि पापानि, मा च भूत् कोऽपि दुःखितः।मुच्यतां जगदप्येषा, मतिमैत्री निगद्यते।।११८।। अर्थ :- जगत् का कोई भी जीव पाप न करे तथा कोई भी जीव दुःखी न हो, समस्त जीव दुःख से मुक्त होकर
सुखी हों, इन प्रकार का चिंतन करना; मैत्रीभावना है ॥११८|| व्याख्या :- उपकारी अथवा अपकारी कोई भी जीव दुःख के कारणभूत पाप का सेवन न करे। पाप से रहित होने पर कोई भी जीव दुःखी न बने। देव. मनष्य. तिथंच और नरक चार गति के पर्याय को पाने वाले जगत के समस्त जीव संसार-दुःख से सदा मुक्त बनकर मोक्ष-सुख प्रास करें; इस प्रकार के स्वरूप वाली मति मैत्री-भावना है। किसी एक का मित्र हो, वह वास्तव में मित्र नहीं है। यों तो हिंसक व्याघ्र, सिंह आदि की भी अपने बच्चों पर मैत्री होती है। किन्तु वह मैत्री मैत्री नहीं है। इसलिए मेरी समस्त जीवों के प्रति मित्रता है। अतः मन, वचन और काया से उन पर मैंने अपकार किया हो, उन सभी को मैं खमाता हूं; यही मैत्री भावना है ।।११८।।
अब प्रमोद-भावना का स्वरूप कहते हैं||४४५। अपास्ताशेषदोषाणां, वस्तुतत्त्वावलोकिनाम् । गुणेषु पक्षपातो यः, स प्रमोदः प्रकीर्तितः ॥११९।। अर्थ :- जिन्होंने सभी दोषों का त्याग किया है और जो वस्तु के यथार्थ स्वरूप को देखते हैं, उन साधुपुरुषों के
गुणों के प्रति आदरभाव होना, उनकी प्रशंसा करना. 'प्रमोद भावना' है ।।११९।। व्याख्या:- प्राणी-वधादि सभी दोषों का जिन्होंने त्यागकर दिया है और जिनका स्वभाव पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को जानने का है। इस प्रकार यहां दोनों विशेषताओं से ज्ञान और क्रिया दोनों के संयुक्त रूप से मोक्षहेतु होने का कथन किया है। भगवान् भाष्यकार ने कहा है-नाण-किरियाहिं मोक्खो अर्थात् ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष होता है। इस प्रकार के गुणवान् मुनियों के क्षयोपशमिकादि आत्मिक गुण तथा शम, इंद्रियों का दमन, औचित्य, गांभीर्य, धैर्यादि गुणों के प्रति अनुराग करना, गुणों का पक्ष लेना, उनके प्रति विनय, वंदन, स्तुति, गुणानुवाद, वैयावृत्य आदि करना। इस तरह स्वयं और दूसरों के द्वारा की हुई पूजा से उत्पन्न, सभी इंद्रियों से प्रकट होने वाला मन का उल्लास, प्रमोद-भावना है ।।११९।।
अब कारुण्यभावना का स्वरूप कहते हैं।४४६। दीनेष्वार्तेषु भीतेषु, याचमानेषु जीवितम् । प्रतिकारपरा बुद्धिः, कारुण्यमभिधीयते ॥१२०॥ अर्थ :- दीन, पीड़ित, भयभीत और जीवन की याचना करने वाले प्राणियों के दुःख को दूर करने की बुद्धि
'करुणा-भावना' कहलाती है ।।१२०।। व्याख्या :- मति-श्रुत-अज्ञान एवं विभंगज्ञान के बल से हिंसाप्रधान शास्त्रों की रचना करके जो स्वयं संसार में डूबते हैं और अपने अनुयायियों को भी डूबोते हैं, वे बेचारे दया के पात्र होने से दीन हैं। जो नये-नये विषयों को उपार्जन करते हैं; पूर्वोपाजित विषयों की भोगतृष्णा रूपी अग्नि में जलने से दुःखी है; जो हित की प्राप्ति और अहित का त्याग करने के बजाय उलटा आचरण करते हैं; पहले धनोपार्जन करते हैं, फिर उसकी रक्षा करते हैं, फिर उसे भोग में खर्च करते हैं अथवा धननाश हो जाने पर पीड़ित या दुःखी होते हैं। इस प्रकार जो विविध दुःखों से पीड़ित है अथवा जो सबसे भयभीत रहने वाले अनाथ, रंक, बालक, बूढ़े, सेवक आदि हैं, वैरियों से पराजित, रोग से ग्रस्त अथवा मृत्युमुख में पहुंचे हुए जो जीने की प्रार्थना और प्राणों की याचना करते हुए प्राण-रक्षा चाहते हैं। इस प्रकार के दीनादि, जिन्होंने कुशास्त्र की रचना की है, वे बेचारे असत्यधर्म की स्थापना करके किस तरह दुःख से विमुक्त हो सकते हैं? भगवान् महावीर को मरीचि के भव में उन्मार्ग का उपदेश देने से कोटाकोटी सागरोपम काल तक भवभ्रमण करना पड़ा, तो फिर अपने पापों की प्रतिकारशक्ति से रहित दूसरों की क्या गति होगी? विषयों को उत्पन्न करने, उनका उपभोग करने, उनमें
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