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अनार्य देश अंतरद्वीप, नंदीधरद्धीप वर्णन
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक १०५ वर्धमान, वारिषेण और चंद्रानन नाम की चार प्रतिमा पर्यकासन से विराजमान है तथा प्रत्येक में एकसौ आठ प्रतिमा, दो यक्षप्रतिमा, दो भूतप्रतिमा, दो कलशधर प्रतिमा, दो चामर धारण करने वाले देवों की प्रतिमा होती है। वे प्रतिमाएँ पुष्पमाला, घंटा, कुंभ, धूपघटिका, अष्टमंगल, तोरण, ध्वजा, पुष्प, अंगेरिका, दर्पण, पटल, छत्र और आसन से युक्त होती है। जिनालय की भूमि पर मनोहर बारीक स्वर्णबालका बिछी हई होती है तथा जिनमंदिर के नाप का आगे का मंडप सोलह पूर्णकलशों से सुशोभित प्रेक्षामंडप, अक्षवाटक-गवाक्ष, मणिपीठिका, स्तूप, चैत्यवृक्ष, इंद्रध्वज, वावड़ी आदि क्रमशः रचनाओं से पूर्ण होता है। __अंजनगिरि पर्वत के पूर्वादि प्रत्येक चार दिशाओं में चार-चार बावड़ी होती है, उसके नाम क्रमशः - १. नंदिषेणा, २. अमोघा, ३. गोस्तूपा, ४. सुदर्शना, १. नंदोत्तरा, २. नंदा, ३. सुनंदा, ४. नंदिवर्धना, १. भद्रा, २. विशाला, ३. कुमुदा, ४. पुंडरीकिणी; १. विजया, २. वैजयंती, ३. जयंती ४. अपराजिता है। इनमें प्रत्येक बावड़ी के आगे पांच सौ योजन के बाद लाख योजन लंबा, पांच सौ योजन चौडा, अशोक, सप्तछंद चंपक, आम्र आदि नाम से उद्यान है, बावड़ियों के मध्यभाग में स्फटिकरत्नमय दधिमुखपर्वत है, वह सुंदर वेदिका, उद्यान आदि से युक्त चौंसठ हजार योजन ऊंचा, एक हजार योजन गहरा, दस हजार योजन नीचे विस्तृत तथा उतना ही ऊपर विस्तृत और पल्यंकाकृति वाला पर्वत है। किसी का ऐसा कहना है कि बावड़ी के बीच में दो-दो पर्वत है जो संख्या में बत्तीस है। दधिमुख और रतिकर पर्वत पर अंजनगिरि के समान मंदिर समझना। द्वीप की विदिशा में चार रतिकर पर्वत है। वे दस हजार योजन लंबे-चौड़े, हजार योजन ऊंचे सर्वरत्नमय और झल्लरी के समान आकति वाले हैं। वहां दक्षिण में शक्रेन्द्र की और उत्तर के दो पर्वतों में| इशानेन्द्र की आठ अग्र-महादेवियों की: चारों दिशा में लाख योजन प्रमाण वाली, प्रत्येक दिशा में जिनमंदिर से विभूषित आठ-आठ राजधानियां है, उसके नाम इस प्रकार-सुजाता, सौमनसा, अर्चि, माली, प्रभाकरा, पद्मा, शिवा, शुचि। अंजना, भूतावतंसा, गोस्तूपा, सुदर्शना, अमला, अप्सरा, रोहिणी, नवमी। रत्ना, रत्नोच्चया तथा सर्वरत्ना, रत्नसंचया। वसु, वसुमित्रा, वसुभागा, वसुंधरा। नंदोत्तरा, नंदा, उत्तरकुरु, देवकुरु, कृष्णा, कृष्णाराजी, रामा, रामरक्षिता। अग्निकोण की राजधानी भी इसी क्रम से जानना। वहां सर्वसंपत्तिवान देवता अपने अपने परिवार के साथ पुण्य-पर्व के दिनों में आकर देव, असुर और विधाधरादि के पूजनीय जिनमंदिर में हर्षित मन से अष्टाह्निका-महोत्सव करते हैं। यहां पर अंजनगिरि में चार और दधिमुखपर्वत में सोलह मिलाकर बीस जिनमंदिर तथा रतिकरपर्वत पर बत्तीस इस तरह गिरि के शिखर पर बावन जिनालयों की हम स्तुति करते हैं और इंद्राणी की राजधानी में बत्तीस है। कई सोलह जिनालय मानते हैं। उनकी हम स्तुति करते हैं। इस अर्थ को पुष्ट करने वाली पूर्वाचार्य की गाथाओं का अर्थ कहते हैं
'जहां देवसमुदाय हमेशा विलास और प्रभुभक्ति में आनंद मग्न रहते हैं, वह नंदीश्वर नाम का आठवां द्वीप १६३८४००००० योजन प्रमाण का है, वहां पूर्वादि चार दिशा में भैंस के सींग के समान श्यामवर्णवाले ९४००० योजन ऊंचे, एक हजार योजन मूल में, भूमितल पर दस हजार और उसके ऊपर के भाग में ९४०० और आखिर में हजार योजन चौड़े पर्वत है। , क्षय-वृद्धि-अधिकता वाले पूर्वदिशा में देवरमण, दक्षिण में नित्योद्योत, पश्चिम में स्वयंप्रभ और उत्तर दिशा में रमणीय इस प्रकार चार पर्वत है। अंजन पर्वतों से एक लाख योजन दूर, चारों दिशा में हजार योजन गहरी मत्स्य रहित निर्मल-जलयुक्त बावड़ी है, पूर्वादि प्रत्येक दिशा में चार-चार बावड़ी के नाम अनुक्रम से इस प्रकार हैं१. नंदिषेणा, २. अमोघा, ३. गोस्तूपा, ४. सुदर्शना, ५. नंदोत्तरा, ६. नंदा, ७. सुनंदा, ८. नंदिवर्धना, ९. भद्रा, १०. विशाला, ११. कुमुदा, १२. पुंडरीकिणी, १३. विजया, १४. वैजयंती, १५. जयंती, १६. अपराजिता। उससे आगे पांच सौ योजन जाने के बाद लाख योजन लंबा और पांचसौ योजन चौड़ा वनखंड है; जहां पूर्व में अशोकवन, दक्षिण में सप्तपर्णवन, पश्चिम में चंपकवन और उत्तर में आम्रवन नामक वन है। बावड़ियों के मध्यभाग में प्याले के आकार के समान स्फटिकरत्नमय दस हजार योजन चौडे, हजार योजन जमीन से मूल में, चौसठ हजार योजन ऊंचे सोलह दधिमुखपर्वत है। अंजनगिरि और दधिमुखपर्वत पर सौ योजन चौड़े, बहत्तर योजन ऊंचे, विविध प्रकार से शोभित सुंदर, नृत्यगीत, संगीत आदि सैकडों प्रकार की भक्ति से युक्त तोरण-ध्वजा, मंगलादिसहित जिनमंदिर है, देव, असुर, नागकुमार और सुपर्णकुमार के नाम वाले भवन में किले और द्वार है, जिनकी ऊंचाई सोलह योजन और चौड़ाई आठ योजन है। प्रत्येक द्वार पर कलश आदि हैं। आगे मंडप, प्रेक्षामंडप, गवाक्ष, मणिपीठ, स्तूप प्रतिमाष्टक चैत्य वृक्ष,
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