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अंतरद्धीप वर्णन
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक १०५ अच्छदेश वरुणानगरी से, १८. दशार्णदेश मृत्तिकावती नगरी से, १९. चेदी शुक्तिमती नगरी से, २०. सिंधुसौवीर वीतभय से, २१. शूरसेन मथुरा से, २२. भंगा पापा से, २३. वर्ता माषपुरी से, २४. कुणाल श्रावस्ती से, २५. लाटदेश कोटिवर्ष से और २६. कैकेय का आधा देश श्वेतांबिका नगरी से पहचाना जाता है। यह साढ़े पच्चीस देश आर्यदेश कहलाते हैं, जहां जिनेश्वरदेव, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव का जन्म होता है।
शक, यवन आदि देश अनार्यदेश कहलाते हैं। वे इस प्रकार-शक, यवन, शबर, कायमरुंड, उड्ड, गोण, पकवण, आख्यानक, हूण, रोमश, पारस, खन, कौशिक, दुबलि, लकुश, बुक्कस, आंध्र, पुलिन्द, क्रौंच, भ्रमर, रुचि, कापोत, चीन, चंचुक, मालव, द्रविड, कुलत्थ, कैकेय, किरात, हयमुख, स्वरमुख, गजमुख, तुरगमुख, मेंढमुख, हयकर्ण, गजकर्ण इत्यादि और अनेक अनार्य मनुष्य हैं, जो पापकर्मी, प्रचंड-स्वभावी, निर्दय, पश्चात्ताप रहित है, धर्म शब्द तो उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सुना। इसके अतिरिक्त अंतरद्वीप में उत्पन्न हुए यौगलिक मनुष्य भी अनार्य समझना।
५६ अंतरद्वीप इस प्रकार है-हिमवान पर्वत के अगले और पिछले भाग में ईशान आदि चार विदिशाओं में लवणसमुद्र के अंदर ईशानकोण में तीनसौ योजन अवगाहन करके तीनसौ योजन लंबाचौड़ा एक ऊरुक् नाम का प्रथम अंतरद्वीप है; वहां एकोरुक पुरुषों का निवास है। द्वीपों के नाम अनुसार पुरुषों के नाम हैं। पुरुष तो सभी अंगोंपांगों से सुंदर होते हैं, मगर एक उरूक वाला स्थान नहीं होता, इसी प्रकार अन्य के लिए भी समझना। अग्निकोण में तीनसौ योजन लवणसमुद्र के अंदर जाने के बाद तीनसौ योजन लंबाई चौड़ाई वाला और आभिषिक पुरुषों के रहने का स्थान प्रथम आभाषिक नाम का अंतरद्वीप है। तथा नैऋत्य-कोण में उसी तरह लवणसमुद्र में जाने के बाद तीनसौ योजन लंबा चौड़ा लांगूलिक मनुष्यों के रहने योग्य लांगूलिक नाम का प्रथम अंतरद्वीप है तथा वायव्य कोण में तीनसौ योजन लवणसमुद्र में जाने के बाद ३०० योजन लंबा-चौड़ा वैषाणिक मनुष्यों के रहने योग्य वैषाणिक नामक प्रथम अंतरद्वीप है। इसके बाद ४०० योजन आगे जाने पर ४०० योजन लंबे चौड़े वैसे ही हयकर्ण, गजकर्ण, गोकर्ण, शष्कुलीकर्ण नाम के दूसरे चार अंतरद्वीप है। उसके बाद ५०० योजन जाने पर ५०० योजन लंबे-चौड़े आदर्शमुख, मेषमुख, हयमुख, | गजमुख नाम के तिसरे चार अंतर द्वीप है। उसके बाद ६०० योजन आगे जाने पर उतनी ही लंबाई-चौड़ाई वाले
अश्वमुख, हस्तिमुख, सिंहमुख, व्याघ्रमुख नाम के चौथे चार अंतरद्वीप है। उसके बाद लवणसमुद्र में ७०० योजन आगे जाने पर सातसौ योजन लंबाई, चौड़ाई वाले अश्वकर्ण, सिंहकर्ण, हस्तिकर्ण, कर्णप्रावरण नाम के पांचवें चार अंतरद्वीप है। उसके बाद इसी तरह आठ सौ योजन जाने पर आठसौ योजन लंबे-चौड़े उल्कामुख, विद्युत्जिह्म, मेषमुख, विद्युइंत के नाम के छढे चार अंतरद्वीप है, उसके बाद नौसो योजन लवणसमुद्र में जाने के बाद नौसो योजन लंबे-चौड़े घनदंत, गूढदंत, श्रेष्ठदंत, शुद्धदंत नामके सातवें चार अंतरद्वीप है। इस अंतरद्वीपों में यौगलिक मनुष्य जन्म लेते हैं। इनकी आयुष्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग की होती है, शरीर आठसौ धनुष्य का ऊंचा होता है। इसी तरह ऐरावत क्षेत्र का विभाग करने वाला शिखरी पर्वत भी ईशानादि विदिशाओं के इसी क्रम से नाम-समुदाय से अठाईस अंतरद्वीप है। यह सब मिलाने से छप्पन्न अंतरद्वीप होते हैं।
मानुषोत्तर पर्वत के बाद पुष्करवरद्वीप के चारों तरफ इस द्वीप से दुगुने विस्तार वाला गोलाकार पुष्करोद समुद्र है, उसके बाद क्षीरवरद्वीप और समुद्र है, उसके बाद घृतवरद्वीप और समुद्र है, बाद में इक्षुवर द्वीप और समुद्र है। इसके बाद आठवां नंदीश्वरद्वीप है, वह १६३८४००००० योजन का है, इसमें देवलोक की स्पर्धा करने वाले विविध प्रकार से सुंदर बाग है, जो जिनेश्वर देव की प्रतिमा की पूजा में एकाग्र देवों के आगमन से मनोहर तथा इच्छानुसार विविध क्रीड़ा करने के लिए एकत्रित देवों से रमणीय है। उसके मध्यभाग में चारों दिशा में अंजन के समान वर्ण वाले छोटे मेरु के समान अर्थात् ८४००० योजन ऊंचाई वाले, नीचे दस हजार योजन से अधिक और उपर एक हजार योजन विस्तृत चार अंजनगिरि है। उनके नाम क्रमशः देवरमण, नित्योद्योत, स्वयंप्रभ और रमणीय है। उन पर सौ योजन लंबा, पचास योजन चौड़ा और बहत्तर योजन ऊंचा जिनमंदिर है, वहां सोलह योजन ऊंचा, आठ योजन विस्तृत, आठ योजन प्रवेश करने योग्य देव, असुर, नाग और सुपर्ण देवताओं के नाम वाले और रहने वाले चार द्वार है, उसके अंदर सोलह योजन लंबी-चौड़ी आठ योजन ऊंची पीठिका है। उस पर कुछ अधिक लंबा-चौड़ा देवच्छंदक है, वहां प्रत्येक दिशा में ऋषभ,
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