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जंबुद्वीप आदि द्विपों का वर्णन
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक १०५ अट्ठाईस हजार नदियां, हरिकांता और हरिता में छप्पन छप्पन हजार नदियां, शीता और शीतोदा में पांच लाख | बत्तीसहजार नदियां मिलती है। उत्तर की नदियों का परिवार भी दक्षिणप्रवाहिनी नदियों के समान जान लेना । भरतक्षेत्र की कुल लंबाई ५२६/९ योजन है। उसके बाद महाविदेह तक क्रमशः लंबाई में दुगुने - दुगुने पर्वत और क्षेत्र हैं और | उत्तर के प्रत्येक क्षेत्र और पर्वत भी दक्षिण के समान है।
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महाविदेह में निषधपर्वत के उत्तर में और मेरु के दक्षिण, पश्चिम और पूर्व में विद्युत्प्रभ और सौमनस नामक निषध | के अंतर्गत गजदंताकार पर्वतों से घिरे हुए, शीतोदा नदी से विभक्त पास-पास पांच पांच कुंड और दस-दस कांचनपर्वतों से सुशोभित है । शीतोदा नदी के पूर्व और पश्चिम किनारे पर एक हजार योजन ऊपर उतना ही नीचे विस्तार वाले और | इससे आधा ऊपर में विस्तार वाले विचित्रकूट और चित्रकूट से शोभित देवकुरु ११८४२ २ / योजन प्रमाण वाला है। | मेरुपर्वत के उत्तर और दक्षिण में गन्धमादन और माल्य पर्वत है, जिसकी आकृति हाथी के समान है, मेरु नीलपर्वत के बीच में स्थित शीतानदी से विभक्त होकर बने हुए पास में पांच कुंड है। सौ कांचनपर्वतों से युक्त शीतानदी के दोनों | किनारों पर विचित्रकूट और चित्रकूट नाम वाले सुवर्ण यमकपर्वतों से शोभित उत्तरकुरु है । देवकुरु और उत्तरकुरु से पूर्व की ओर पूर्व महाविदेह और पश्चिम की ओर पश्चिममहाविदेह है। पूर्वविदेह में चक्रवर्ती के लिए योग्य नदियों और | पर्वतों से विभाजित परस्पर एक दूसरे में प्रवेश न कर सके; इस प्रकार के सोलह विजय है । उसी प्रकार पश्चिमविदेह में भी सोलह विजय हैं।
भरतक्षेत्र के मध्यभाग में पूर्व और पश्चिम दोनों तरफ समुद्र को स्पर्श करता हुआ, भरत के दक्षिण और उत्तर दो विभाग करने वाला, तमिस्रा और खंडप्रपाता नाम की दो गुफाओं से शोभित वैताढ्यपर्वत है। यह सवा छह योजन जमीन के अंदर है, पचास योजन विस्तृत है और पच्चीस योजन ऊंचा है। इस पर्वत के दक्षिण और उत्तर की निकटवर्ती भूमि से दस योजन ऊंची एवं दस योजन विस्तृत विधाधरों की श्रेणियां है। जहां दक्षिणदिशा में प्रदेशसहित पचास नगर है और उत्तरदिशा में साठ नगर है। विधाधरों की श्रेणियों से ऊपर दोनों तरफ दस योजन के बाद तिर्यग्जृंभृक व्यंतरदेवों की श्रेणियाँ है । उनमें व्यंतरदेवों के आवास है। व्यंतर श्रेणियों से ऊपर पांच योजन पर नौ कूट हैं। वैताढ्य पर्वत की | वक्तव्यता समान ऐरावतक्षेत्र में भी इसी प्रकार समानता जान लेना ।
जंबूद्वीप के चारों तरफ कोट के समान वज्रमय आठ योजन ऊंची जगती है। वह मूल में बारह योजन लंबी है। | बीच में आठ योजन और ऊपर चार योजन है। उसके ऊपर दो गाऊ ऊंचा जालकटक नाम का विद्याधरों के क्रीड़ा करने का स्थल है। उसके ऊपर के भाग में पद्मवरवेदिका नाम की देवों की भोगभूमि है। इस जगती के पूर्वादि प्रत्येक दिशा में विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के चार द्वार हैं। हिमवान और महाहिमवान इन दोनों पर्वतों के बीच में | शब्दापाती नाम का वृत्त वैताढ्य पर्वत है, रूक्मी और शिखरी के बीच में - विकटापाती, महाहिमवान और निषध के बीच में गंधापाती, नील और रूक्मी के बीच में माल्यवानपर्वत है। ये सभी एक-एक हजार योजन ऊंचे और पाली की आकृति वाले हैं।
तथा जंबूद्वीप के चारों तरफ घिरा हुआ उससे दुगुना अर्थात् दो लाख योजन विस्तार वाला (मध्य में दस हजार | योजन विस्तार वाला) एक हजार योजन गहरा और दोनों ओर पंचानवे हजार योजन तथा मध्य में वृद्धि होने के कारण | जल का विस्तार सोलह हजार योजन ऊंचा तथा उससे ऊपर रात और दिन में दो गाऊ तक जल घटता-बढ़ता रहने वाला लवण समुद्र है। इसके मध्यभाग में चारों दिशा में लक्षप्रमाण वाले पूर्व में वडवामुख, दक्षिण में केयूप, पश्चिम में यूप और उत्तर में ईश्वर नामक हजार योजन वज्रमय मोटाई वाला तथा दस हजार योजन के मुख तथा तल युक्त; काल, महाकाल, वेलंब और प्रभंजन देवों के आवास वाला, महान गहरा, खड्डे के समान, वायु धारण करने वाला तीन | भाग जल वाला पातालकलश है, दूसरे छोटे कलश हजार योजन के नीचे और मुख सौ योजन, दस योजन मोटाई वाले; | जिनमें ३३३ /, ऊपर के भाग में जल, मध्य में वायु और जल और नीचे वायु होता है। जंबूद्वीप में प्रवेश करते हुए जल के ज्वार को रोकने के लिए ७८८४ देव तथा अंर्तज्वार रोकने के लिए ४२००० नागकुमार देव और बाह्यज्वार रोकने के | लिए ७२००० देव और ज्वारशिखा को रोकने के लिए ६०००० देव होते हैं। गोस्तूप, उदकाभास, शंख और दकसीम
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