Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 400
________________ व्यंतर देवों और ज्योतिष्कदेवों का वर्णन योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक १०५ आदि के विमान के आगे सिंह दक्षिण में हाथी, पश्चिम में वृषभ और उत्तर में अश्व होते हैं। सूर्य और चंद्र के सोलह हजार आज्ञापालक आभियोगिक देव होते हैं। ग्रह के आठ हजार, नक्षत्र के चार हजार, तारा के दो हजार आभियोगिक परिवार होता है। अपनी देवगति और देवपुण्य होने पर भी चंद्रादि आभियोग्यकर्म के कारण उसी रूप में उपस्थित होते हैं। मानुषोत्तर पर्वत के बाद पचास हजार योजन क्षेत्र-परिधि की वृद्धि से संख्या में बढ़े हुए शुभलेश्या वाले ग्रह, नक्षत्र, तारा के परिवार घंटा की आकृति के समान असंख्यात है। वे स्वयंभूरमणसमुद्र से लाख योजन अंतर वाली श्रेणियों में | रहते हैं। मध्यभाग में जंबूद्वीप और लवणादिसमुद्र सुंदर सुंदर नाम वाले, आगे से आगे दुगुनी-दुगुनी परिधि (व्यासगोलाई) वाले असंख्यात वलयाकार द्वीप और समुद्र है और आखिर में स्वयंभूरमण समुद्र है। जंबूद्वीप के मध्यभाग में मेरुपर्वत सोने की थाली के समान एक हजार योजन नीचे पृथ्वी के अंदर छुपा हुआ है। यह ९९ हजार योजन ऊंचा है, मूल में १००९००/, विस्तृत है। धरतीतल में दस हजार योजन विस्तार वाला, उपर हजार योजन चौड़ा, तीन कांड विभाग वाला है। यह अधोलोक में १०० योजन, तिछेलोक में १८०० योजन और ऊर्ध्वलोक में ९८१०० योजन है। इस तरह मेरुपर्वत तीनों लोक को विभक्त करता है। इसमें भद्रशाल, नंदन, सौमनस और पांडुक नाम के चार वन है; जिनमें प्रायः शुद्ध पृथ्वी, पाषाण, वज्र, पत्थरों से परिपूर्ण एक हजार योजन-प्रमाण वाला प्रथम कांड है। चांदी, सोना अंकरत्न और स्फटिकरत्न की प्रचुरता से युक्त ६३ हजार योजन वाला दूसरा कांड है, छत्तीस हजार योजन वाला स्वर्णबाहुल्य तीसरा कांड है। वैडूर्यरत्न की अधिकता से युक्त चालीस योजन ऊँची उसकी चूलिका है, वह मूल में बारह योजन लंबी, मध्य में आठ योजन और ऊपर चार योजन लंबी है। मेरुपर्वत के प्रारंभ में तहलटी में वलयाकार भद्रशाल वन है, भद्रशाल वन से पांच सौ योजन ऊपर जाने के बाद पांचसो योजन विस्तृत प्रथम मेखला में वलयाकार नंदनवन है। उसके बाद साढ़े बासठ हजार योजन ऊपर जाने के बाद दूसरी मेखला में पांच सौ योजन विस्तृत वलयाकार सौमनसवन है। उसके बाद छत्तीस हजार योजन जाने पर तीसरी मेखला मेरुपर्वत के शिखर पर ४९४ | योजन विस्तृत वलयाकृति-युक्त पांडुकवन है। ___इस जंबूद्वीप में सात क्षेत्र है। उसमें दक्षिण की और भरतक्षेत्र है, उत्तर में हैमवत क्षेत्र है, उसके बाद हरिवर्षक्षेत्र है। बाद में महाविदेह है, उसके बाद रम्यक्क्षेत्र है, उसके बाद हैरण्यवतक्षेत्र है, बाद में ऐरावतक्षेत्र है। प्रत्येक क्षेत्र को पृथक् करने वाले हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी नाम के पर्वत है। वे क्रमशः हेम, अर्जुन, तपनीय, स्वर्ण, वैडूर्य, चांदी और तपनीय मय विचित्र मणिरत्नों से सुशोभित, मूल और ऊपर के भाग में समान विस्तार वाले है। हिमवान् पर्वत पचीस योजन जमीन में और सौ योजन ऊंचा है, महाहिमवान् उससे दुगुना अर्थात् दो सौ योजन ऊंचा है। निषेधपर्वत चारसौ योजन ऊंचा है, नीलपर्वत उतना ही चार सौ योजन ऊंचा, रुक्मी महाहिमवान् | जितना और शिखरी हिमवान् के जितना ऊंचा है। इन पर्वतों पर पद्म, महापद्म, तिगिच्छ, केशरी, महापुंडरीक और पुंडरीक नाम के क्रमशः सात सरोवर हैं। प्रथम सरोवर एक हजार योजन लंबा और पांच सौ योजन चौड़ा है। दूसरा इससे दुगुना और तीसरा इससे भी दुगुना है। उत्तर में पुंडरीक आदि सरोवर दक्षिण के सरोवरों के समान है। प्रत्येक सरोवर में दस योजन की अवगाहना वाला पद्मकमल है और जिस पर क्रमशः श्रीदेवी, ह्रीदेवी, धृतिदेवी, कीर्तिदेवी, बुद्धिदेवी और लक्ष्मीदेवी निवास करती है। उनका आयुष्य एक पल्योपम का होता है तथा वे सामानिक देवपर्षदा के देवता तथा | आत्मरक्षक देवों से युक्त होती हैं। इस भरतक्षेत्र में गंगा और सिंधु नाम की दो बड़ी नदियां है, हैमवंतक्षेत्र में रोहिताशा और रोहिता, हरिवर्षक्षेत्र में हरिकांता और हरिता, महाविदेह में शीता और शीतोदा; रम्यक्क्षेत्र में नारी और नरकांता, हैरण्यवत में सूवर्णकूला और रूप्यकूला और ऐरवतक्षेत्र में रक्ता और रक्तोदा नाम की नदियां हैं। इसमें प्रथम नदी पूर्व में और दूसरी नदी पश्चिम में बहती है। गंगा और सिन्धु नदी के साथ कुल चौदह हजार नदियों का परिवार है। अर्थात् दोनों में चौदह-चौदह हजार नदियों का परिवार है। अर्थात् दोनों में चौदह चौदह हजार नदियाँ मिलती है। रोहिताशा और रोहिता में अट्ठाईस 378

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