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लोक स्वरूप भावना
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक १०४ से १०५ हुई ठोस वायु) है, तदनंतर है-तनुवात (पतली हवा)। महाबलशाली से यहां 'पृथ्वी को धारण करने में समर्थ' से तात्पर्य है। इसमें प्रत्येक पृथ्वी के नीचे घनोदधि है, जो मध्यभाग में बीस हजार योजन मोटा है, घनवात (महावायु) की मोटाई घनोदधि से मध्यभाग में असंख्यातयोजन है और तनुवात घनवात से असंख्यातयोजन स्थूल है। उसके बाद असंख्यात योजनसहस्र आकाश है। यह बीच की मोटाई का नाप है। उसके बाद क्रमशः दोनों तरफ घटते-घटते आखिरी वलय के सदृश नाप वाला होता है। रत्नप्रभा के घनोदधि वलय की चौड़ाई सिर्फ ६ योजन है, घनवातवलय की चौड़ाई ४।। योजन और तनुवातवलय की चौड़ाई १।। योजन है। रत्नप्रभा के वलयमान पर घनोदधि में योजन का तीसरा भाग होता है, घनवात में एक कोस और तनुवात में कोस का तीसरा भाग होता है। इस तरह शर्कराप्रभा में वलयमान समझना। शर्कराप्रभा के वलयमान के ऊपर भी इसी प्रकार प्रक्षेप करना (मिलाना)। इसी तरह पूर्व-पूर्व वलयमान पर ऊपर कहे अनुसार सात पृथ्वी तक मिलाते हुए आगे बढ़ते जाना। कहा भी है-घम्मा के प्रथम वलय की लंबाई कोस का तीसरा भाग है, दूसरे वलय की लंबाई एक गाऊ-कोस और अंतिम वलय की लंबाई कोस का तीसरा हिस्सा; इत्यादि प्रकार से ध्रुव में मिलाते जाना। इसी तरह सात पृथ्वी तक मिलाना। प्रक्षेप करने के बाद वलय की चौड़ाई का नाप इस प्रकार जानना-दूसरी वंशा नाम की पृथ्वी में प्रथम वलय का विष्कंभ (चौड़ाई) ६ योजन और एक तिहाई (६/) योजन, दूसरे वलय में ४/, योजन और तीसरे वलय में १०/, योजन होता है। इस तरह सब मिलाकर इकट्ठे करने से वंशा (शर्कराप्रभा) नामक द्वितीय नरकभूमि की सीमा से १२२/, योजन के अंत में अलोक है। शैला (बालुकाप्रभा) नाम की तृतीय नरकभूमि के प्रथम वलय का विष्कंभक ६ योजन है, दूसरा वलय ५२/, योजन है और तीसरा है १२/, योजन। कुल मिलाकर १३/ योजन में वालुकाप्रभा की सीमा पूर्ण होती है। इसके आगे अलोक है। चौथी पंकप्रभा (अंजना) नामक नरकपृथ्वी के वलयों में प्रथम का विष्कंभ ७ योजन, दूसरे का ५२/, योजन और तीसरे का १/, योजन, इस प्रकार कुल १४ योजन के बाद अलोक आता है। धूमप्रभा (रिष्टा) नाम की पंचम नरकभूमि में तीनवलय क्रमशः ७१, ५२, १५/, योजन विष्कंभ है। उसके बाद यानी १४२/ योजन के बाद अलोक है। तमःप्रभा (मघा) नामक छट्ठी नरक के तीन वलय हैं, उनमे प्रथम घनोदधिवलय का विस्तार ७२/, दूसरे| का ५२/, और तीसरे का १९/,, योजन चौड़ाई है। महातमःप्रभा (माघवती) नामक ससमनरकभूमि का प्रथम वलय |८ योजन, दूसरा वलय ६ योजन और तीसरा वलय २ योजन लंबा चौड़ा है, अर्थात् कुछ १६ योजन के बाद अलोक समझना। (बृहत्संग्रहणी २४५-२५१) पृथ्वी के आधारभूत घनोदधि, घनवात और तनुवात इन तीनों वलयों की पृथ्वी के चारों ओर वलयाकार से अंतिम भाग तक जितनी चौड़ाई होती है, उतनी ही पृथ्वी की ऊंचाई का नाप होता है ।।१०४।।
पुनः लोक का स्वरूप बताते हैं।४३१। वेत्रासनसमोऽधस्तात्, मध्यतो झल्लरीनिभः । अग्रे मुरजसङ्काशो, लोकः स्यादेवमाकृतिः॥१०५॥ अर्थ :- यह लोक नीचे के भाग में वेत्रासन के आकार का है यानी नीचे का भाग विस्तृत है और ऊपर का भाग
क्रमशः संकुचित (सिकुड़ा हुआ) है; मध्यभाग झालर के आकार का है और ऊपर का भाग मृदंग केसे आकार का है। तीनों लोकों की इस प्रकार की आकृति मिलाने से पूरे लोक का आकार बन जाता
है।।१०५॥ व्याख्या :- लोक का अधोभाग वेत्रासन के समान, नीचे का भाग विस्तृत और ऊपर से उत्तरोत्तर क्रमशः संकुचित होता चला जाता है। लोक का मध्यभाग झालर (बाजे) के समान तथा ऊपर का भाग मृदंग के समान-यानी ऊपर और नीचे का भाग सिकुड़ा हुआ और बीच में विस्तृत होता है। इस तरह तीन आकार वाला लोक है।
पूज्य उमास्वाति ने प्रशमरति-प्रकरण गाथा २५१ में कहा है-इस लोक में अधोलोक नीचे मुंह किये हुए औंधे रखे हुए सकोरे के आकार का है, तिर्छा लोक थाली-सरीखे आकार का है और ऊर्ध्वलोक खड़े किये हुए मृदंग के आकार का है। यहां पर अधोलोक, तिर्यग्लोक और ऊर्ध्वलोक के मध्यभाग में रुचकप्रदेश की अपेक्षा से मेरुपर्वत के
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