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मनःशुद्धि एवं प्रबल रागद्वषादि स मन रक्षा के उपाय-रागद्वषनिवारण एव कमक्षय का उपाय समत्व योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ४९ से ५२ से कौन दीन-हीन बनता? और कौन मोक्ष नहीं प्राप्त कर लेता? सब ही प्राप्त कर लेते। राग के बिना अकेला द्वेष नहीं होता और द्वेष के बिना अकेला राग नहीं होता। दोनों में से किसी एक को छोड़ देने पर दोनों ही छूट जाते हैं। काम आदि दोष राग के सेवक हैं और मिथ्याभिमान आदि द्वेष का परिवार हैं। राग और द्वेष का पिता, नायक, बीज और परमस्वामी, इन दोनों से अभिन्न और दोनों से रक्षित-पालित, समस्त दोषों का पितामह मोह है। इस प्रकार ये तीनों दोष मुख्य है। इनके सिवाय ऐसा कोई दोष नहीं है, जिसका समावेश इनमें न हो सके। ये ही तीन जगत् के समस्त जीवों को संसार रूपी अरण्य में परिभ्रमण कराते हैं। जीव (आत्मा) स्वभावतः स्फटिकरत्न के समान सर्वथा निर्मल है, परंतु इन रागादि उपाधियों के कारण यह रागादि स्वरूप कहलाता है। अफसोस! ये रागादि चोर देखते ही देखते जीव की आत्मिक संपत्ति का हरण कर लेते हैं। इनके कारण विश्व अराजक बना हुआ है; अथवा अपने स्वरूप में स्थित जीव का अपने सामने ही इन रागादि लुटेरों से सर्व ज्ञान लुटा जाता है। निगोद में जितने जीव हैं और जो जीव कुछ ही समय में मुक्ति में जाने वाले हैं, वे सभी इन निष्करुण मोहादि सेना के अधीन हो जाते हैं। अरे! रागादि-दोषों! क्या तुम्हें मुक्ति के साथ या मुमुक्षु के साथ वैर है कि इन दोनों के योग (रत्नत्रयमय) को रोकते हो? तुम्हें (रागादि दोषों को) क्षय करने में समर्थ तो अरिहंत ही हैं। उनके समान और कोई समर्थ नहीं है। उन्होंने जगत् को जला देने वाली दोषाग्नि शांत कर दी है। जिस प्रकार व्याघ्र, सर्प, जल और अग्नि पास में हो तो मुनि डरते नहीं है, इसी प्रकार दोनों लोकों में, इस जन्म और आगामी जन्मों में अपकारकर्ता रागादि से भी मुनि नहीं डरते। वास्तव में उनके पास राग रूपी सिंह और द्वेष रूपी वाघ बैठे रहते हैं, क्योंकि उन योगियों ने मार्ग ही महासंकट का चुना है ।।४६-४८।।
अब राग-द्वेष पर विजय पाने का उपाय बताते हैं।३७५। अस्ततन्द्रैरतः पुम्भिनिर्वाणपदकाङ्क्षिभिः । विधातव्यः समत्वेन, रागद्वेषद्विषज्जयः ॥४९।। अर्थ :- अतः निर्वाणपद पाने के अभिलाषी योगी पुरुषों को तंद्रा (प्रमाद) छोड़कर सावधानी के साथ समत्त्व के
द्वारा रागद्वेष रूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना चाहिए ।।४९।। रागद्वेष को जीतने के लिए समता का उपाय कैसा है? इसे बताते हैं।३७६। अमन्दानन्दजनने, साम्यवारिणि मजताम् । जायते सहसा पुंसां, रागद्वेषमलक्षयः ॥५०॥ अर्थ :- जैसे जल में स्नान करने से मैल दूर हो जाता है, उसी तरह अतीव आनंदजनक समभाव रूपी जल में |
स्नान करने वाले पुरुषों का भी रागद्वेष रूपी मैल सहसा दूर हो जाता है। समत्व केवल एक रागद्वेष को ही नहीं मिटाता; अपितु समस्त कर्मों का भी क्षय करता है। उसे ही कहते हैं।३७७। प्रणिहन्ति क्षणार्धेन, साम्यमालम्ब्य कर्म तत् । यन्न हन्यानरस्तीव्रतपसा जन्मकोटिभिः ।।५१।। अर्थ :- करोड़ों जन्मों तक तीव्र तपस्या करके जिन ज्ञानावरणीय आदि कर्मों को मनुष्य नष्ट नहीं कर सकता;
उन्हीं कमों को समता का आश्रय लेकर मनुष्य आधे क्षण में नष्ट कर सकता है ।।५।। साधक समभाव से अंतर्मुहूर्त में किस तरह समस्त कर्मों को नष्टकर देता है, इसे कहते हैं।३७८। कर्म जीवं च संश्लिष्टं परिज्ञातात्मनिश्चयः । विभिन्नीकुरुते साधुः, सामायिकशलाकया ॥५२॥ अर्थ :- कर्म और जीव परस्पर संश्लिष्ट (जुड़े-चिपके हुए) हैं; जिसे आत्मस्वरूप का निश्चित ज्ञान हो गया है,
वह साधु समभाव सामायिक रूपी सलाई से इन्हें पृथक् कर लेता है ।।५।। व्याख्या :- जीव और कर्म का संयोग हुआ है; ये दोनों अलग-अलग है; एक नहीं हैं। इस प्रकार जिसने आत्म | निश्चय से जाना है, वह मुनि सामायिक रूपी शलाका से जीव और कर्म को पृथक्-पृथक् कर लेता है। जैसे श्लेषद्रव्य से आपस में चिपके हुए पात्रादि को सलाई से अलग कर दिया जाता है, उसी तरह संयोग-संबंध से संबद्ध जीव और
सामायिक से पृथक किया जा सकता है। इसी का नाम कर्मक्षय है; निर्वाणपद की प्राप्ति है। पुद्गलों का आत्यन्तिक-सर्वथा क्षय कदापि नहीं होता. क्योंकि द्रव्य नित्य है। आत्मा से कर्म-पदगलों के पथक हो जाने को ही कर्मक्षय कहते हैं। यहां शंका होती है कि 'साधु सामायिक रूपी सलाई से कर्मों को अलग कर देते हैं, यह कथन केवल
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स्नान