Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

View full book text
Previous | Next

Page 391
________________ तप निर्जरा का कारण योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ९१ उच्चारणसहित बार-बार दोहराना-परावर्तन है; धर्मोपदेश देना, व्याख्या करना, अनुयोग पूर्वक वर्णन करनाधर्मकथा है। ४. विनय - जिससे आठ प्रकार के कर्म दूर हो जाय, वह विनय है। उसके चार भेद हैं-ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचारविनय। अत्यंत सम्मान पर्वक ज्ञान ग्रहण करना. अभ्यास या स्मरण करन सामायिक से लेकर लोकबिन्दुसार तक के श्रुतज्ञान में तीर्थकरप्रभु ने जो पदार्थ कहे हैं, वे सत्य ही हैं, इस प्रकार निःशंक व श्रद्धावान होना-दर्शनविनय है। चारित्र और चारित्रवान पर सद्भाव रखना, उनके संमुख स्वागतार्थ जाना, हाथ जोड़ना आदि चारित्रविनय है। परोक्ष में भी उनके लिए मन-वचन-काया से अंजलि करना, उनके गुणोत्कीर्तन करना उनका स्मरण आदि करना उपचारविनय है। ५. व्युत्सर्ग - त्याज्य पदार्थों का त्याग करना, व्युत्सर्ग है। इसके भी दो भेद हैं-बाह्य और आभ्यंतर। बारह प्रकार से अधिक किस्म की उपाधि का त्याग करना-बाह्यव्युत्सर्ग है अथवा अनैषणीय या जीवजंतु से युक्त सचित्त अन्न जल आदि पदार्थों का त्याग करना भी बाह्य व्युत्सर्ग है। अंतर में कषायों का तथा मृत्यु के समय शरीर का त्याग करना अथवा उपसर्ग आने पर शरीर पर से ममत्व का त्याग करना आभ्यंतर व्युत्सर्ग है। प्रश्न होता है कि प्रायश्चित्त के भेदों में पहले व्युत्सर्ग कहा है; फिर यहां तप के भेदों में इसे दुबारा क्यों कहा गया? इसके उत्तर में कहते हैं-वहां तो बार-बार अतिचारों की शुद्धि के लिए कहा गया है। यहां सामान्य रूप से निर्जरा के लिए व्युत्सर्गतप बताया गया है, इसलिए इसमें पुनरुक्तिदोष नहीं है। ६. शुभध्यान - आर्त और रौद्रध्यान का त्यागकर धर्म और शुक्ल ये दो शुभध्यान करना। आर्त्त-रौद्रध्यान की व्याख्या पहले की जा चुकी है; धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान की व्याख्या आगे [पेज नं. ४४४ पर] करेंगे। इस तरह छह प्रकार का अभ्यंतर तप हुआ। यह तप आभ्यंतर इसलिए कहा गया है कि यह अभ्यंतर कर्मों को तपाने-जलाने वाला है अथवा आत्मा के अंतर्मुखी होने से केवली भगवान् द्वारा ज्ञात हो सकता है। द्वादश तपों में सबसे अंत में ध्यान को इसलिए सर्वोपरि स्थान दिया गया कि मोक्षसाधना में ध्यान की मुख्यता है। कहा भी है-यद्यपि संवर और निर्जरा मोक्ष का मार्ग है, लेकिन इन दोनों में तप श्रेष्ठ है और तपों में भी ध्यान को मोक्ष का मुख्य अंग समझना चाहिए। (ध्यानशतक गाथा ९६) ।।९।। अब तप को प्रकट रूप से निर्जरा का कारण बताते हैं।४१७। दीप्यमाने तपोवह्नौ, बाह्ये चाभ्यन्तरेऽपि च । यमी जरति कर्माणि, दुर्जराण्यपि तत्क्षणात् ॥९१॥ अर्थ :- बाह्य और आभ्यंतर तप रूपी अग्नि जब प्रज्वलित होती है, तब संयमी पुरुष मुश्किल से क्षीण होने वाले ज्ञानावरणीयादि कमों को (अथवा दुष्कर्म वन को) शीघ्र जलाकर भस्म कर देता है ।।११।।। व्याख्या :- संयम द्वारा तपस्या के कर्मों को जला देने का कारण तो मुख्यतया यह है कि तप से निर्जरा होती है। परंतु तप निर्जरा का हेतु है, यह तो उपलक्षण से कहा, परंतु वह संवर का भी हेतु है। वाचकमुख्य उमास्वाति ने कहा है-तप से संवर और निर्जरा दोनों होती है। तप संवर करने वाला होने से वह आते हुए नये कर्मपुंज को रोक देता है| और पुराने कर्मों की निर्जरा भी करता है तथा निर्वाणपद प्राप्त कराता है। इस विषय में प्रयुक्त आंतरश्लोकों का भावार्थ यहां प्रस्तुत कर रहे हैं जैसे चारों ओर से सरोवर के द्वार प्रयत्न पूर्वक बंद कर दिये जाय तो नया जल प्रवाह सरोवर में आने से रुक जाता है; वैसे ही आश्रवों का निरोध करने से संवर से समावृत आत्मा नये-नये कर्मद्रव्यों से नहीं भरता। जिस तरह सरोवर में इकट्ठा किया हुआ जल सूर्य के प्रचंडताप से सूख जाता है; उसी तरह जीव के पहले बांधे हुए संचित समस्त कर्म तप से सुखाए जाय तो क्षणभर में सूख कर क्षीण हो जाते हैं। बाह्यतप की अपेक्षा आभ्यंतरतप निर्जरा का प्रबल कारण है। उसमें भी ध्यानतप का तो मुनियों के जीवन में एकछत्र राज्य होता है। दीर्घकाल से उपार्जित बहुत-से प्रबलकर्मों को ध्यानयोगी तत्काल क्षीण कर देता है। जैसे शरीर में उत्पन्न हुआ अजीर्ण आदि विकार (दोष) लंघन करने से सूख जाता है, वैसे ही आत्मा में पूर्वसंचित विकार | रूपी कर्म तप से सूख जाते हैं। जैसे प्रचंडवायु से मेघसमूह छिन्न-भिन्न या विलीन हो जाते हैं; वैसे ही तपस्या से भी 260

Loading...

Page Navigation
1 ... 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494