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सम्यग् धर्म के १० भेद
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ९३ पीछे आक्रोश करता है सामने या प्रत्यक्ष में तो कुछ नहीं बोलता; इतना तो भला है। कदाचित् प्रत्यक्ष में आक्रोश करता हो, तब यों कहे कि-यह आदमी कितना भला है कि मुख से आक्रोश के शब्द बोलकर ही रह जाता है, मुझे मारता नहीं है। यदि मारता हो तो यह कहे कि यह भला आदमी केवल मारता-पीटता ही है, मेरे प्राणों का नाश तो नहीं करता। यदि कोई जान लेने पर उतारू हो तो यह कहे कि यह प्राणनाश ही तो करता है, मुझे धर्म से भ्रष्ट तो नहीं करता। इस प्रकार आगे से आगे अभाव में अपना लाभ माने और बालस्वभाव पर विचार करे। स्वयं किये हुए कर्म उदय में आये तब ऐसा विचार करने पर क्षमाभाव आता है। पूर्वकृतकर्मों का फल इस प्रकार से होता है। कर्म का फल भोगे बिना या तप किये बिना निकाचितकर्मों का क्षय नहीं होता। अवश्य भोगने योग्य कर्मफल में दूसरा तो निमित्तमात्र होता है। कहा है-सभी जीव अपने-अपने पूर्वकृतकर्मों का फल प्राप्त करते हैं, अपराध करने में या उपकार (गुण) करने में दूसरा तो सिर्फ निमित्तमात्र ही होता है। इस तरह स्वयंकृत कर्म के उदयकाल में विचार करना चाहिए। क्षमा के गुणधर्म का विचार करने से क्षमागुण प्रकट होता है। क्षमा धारण करने से अनायास ही क्रोध का निमित्त मिलने पर भी क्रोध नहीं होता, शुभध्यान का अध्यवसाय रहता है परमसमाधि उत्पन्न होती है, अंतरात्मा में स्थायी प्रसन्नता होती है, किसी
को मारने के लिए शस्त्र ढूंढने का प्रयत्न नहीं होता आवेश नहीं आता, चेहरे पर प्रसन्नता झलकती है, क्रोध से आंखें |लाल नहीं होती, परंतु चेहरा उज्ज्वल रहता है, पसीना नहीं होता, कंपन नहीं होता तथा दूसरों को मारने की भावना नहीं होती। ये और इस प्रकार के गुण क्षमा रखने से प्राप्त होते हैं। क्षमाधर्म क्रोध का प्रतिपक्षी है।
८. मार्दव - का अर्थ है-मृदुता-कोमलता-नम्रता-अभिमानरहितता। मार्दव अहंकार का निग्रह करने से होता है। अहंकार जातिमद आदि के रूप में ८ प्रकार का होता है, जिसकी चर्चा हम पहले कर आये हैं। इसलिए जाति, कुल, बल, रूप, लाभ, तप, वल्लभता, (या ऐश्वर्य) और बुद्धि (या श्रुत) के मद में अंधा बना हुआ-पुरुषार्थहीन पुरुष इहलोक और परलोक के लिए हितकर बात को भी देख नहीं पाता; (प्रशमरति ८०) इत्यादि मददोष-परिहार का कारणभूत मान का प्रतिपक्षी मार्दवधर्म है।
९. सरलता - का अर्थ है-ऋजुता, मन-वचन-काया की एकरूपता या तद्प सरलता-अवक्रता, कुटिलतारहित व्यवहार मायारहित जीवन। मायावी अपने वचन के अनुसार कार्य नहीं करता। इसलिए हरएक के लिए वह शंका का स्थान बना रहता है. अविश्वासपात्र होता है। कहा भी है-मायावी पुरुष यद्यपि अपराध नहीं करता, तथापि वह अपने मायावी स्वभाव के दोष के कारण सर्प के समान प्रत्येक के लिए अविश्वसनीय होता है। (प्रशमरति २८) इस प्रकार माया का प्रतिपक्षी सरलताधर्म है।
१०. मुक्ति - निर्लोभता-अर्थात् बाह्य तथा आभ्यंतर-विषयक तृष्णा का विच्छेद होना। लोभ और आशा-अपेक्षा का अभाव होना। लोभाविष्ट पुरुष क्रोध, मान, माया, हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म, परिग्रह रूप दोष समूह से पुष्ट होता है। कहा भी है-सर्वनाश का आश्रयस्थान और समस्त दुःखों का एकमात्र राजमार्ग लोभ है। लोभ के चंगुल में फंसा हुआ लोभी व्यक्ति क्षण-क्षण में नये नये दुःख पाता रहता है। (प्रशमरति २९) इसलिए लोभ का त्याग रूप निर्लोभता है। स्वपरहित, आत्म-प्रवृत्ति, ममत्व का अभाव, निःसंगता, परद्रोह न करना, रजोहरण आदि संयमपालन के उपकरणों पर भी मूर्छा रहित रहना इत्यादि लक्षण वाला मुक्तिधर्म है।
इस प्रकार धर्म के दस भेद हैं। यहां शंका होती है कि सत्य, संयम, शौच, ब्रह्म, अकिंचनता आदि का समावेश तो महाव्रतों में हो जाता है और क्षमा, मार्दव, आर्जव और मुक्ति इनका समावेश संवर प्रकरण में हो जाता है; तप को संवर और निर्जरा का कारण रूप बताया ही है, तब फिर धर्म-प्रतिपादन के प्रसंग में पुनः इन दस धर्मों को कहने का क्या प्रयोजन है? इससे तो पुनरुक्तिदोष हुआ! इसका समाधान करते हैं कि यद्यपि यहां संयम आदि का फिर से कहने का कोई प्रसंग नहीं था; परंतु संयम आदि दस प्रकार के धर्म का प्रकारांतर से प्रतिपादन इसलिए किया गया है कि यह श्री अरिहंत भगवान् द्वारा स्वाख्यात (अच्छी तरह से कहा हुआ) धर्म है। इसलिए कहना आवश्यक था। धर्मगुण के संबंध में व्याख्या करने वाला होने से तथा अनुप्रेक्षा के निमित्त से भगवान् की स्तुति करने वाला होने से यह जो कुछ कहा है, वह वास्तविक है ।।९३।। अब प्रसंगवश धर्म का प्रभाव बताते हैं
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