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धर्म 'फल' एवं धर्म 'विचार'
__ योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ९४ से १०२ ।४२०। धर्मप्रभावतः कल्पद्रुमाद्या ददतीप्सितम् । गोचरेऽपि न ते यत्स्युरधर्माधिष्ठितात्मनाम् ।।९४।। अर्थ :- धर्म के प्रभाव से कल्पवृक्ष, चिंतामणिरत्न आदि (सुषमकाल में वनस्पति और पाषाण रूप होने पर भी)।
धर्मात्मा जीवों को अभीष्ट फल देते हैं। वे ही कल्पवृक्ष आदि दुःषमकाल आदि में दृष्टिगोचर भी नहीं __ होते, फिर भी ईष्ट (अर्थप्राप्ति रूप) फल प्रदान करते हैं ।।१४।। और भी कहा है।४२१। अपारे व्यसनाम्भोधौ, पतन्तं पाति देहिनम् । सदा सविधव]क-बन्धुर्धर्मोऽतिवत्सलः ॥९५।। अर्थ :- धर्म अपार दुःख-समुद्र में गिरते हुए मनुष्य को बचाता है तथा सदैव निकट रहने वाला एकमात्र बंधु
है; वही अतिवत्सल है ॥९५।। यहां अनर्थ-परिहार रूप फल बतलाया है। तथा।४२२। आप्लावयति नाम्भोधिराश्वासयतिचाम्बुदः । यन्महीं तत्प्रभावोऽयं, ध्रुवं धर्मस्य केवलः ॥९६॥ - अर्थ :- समुद्र इस पृथ्वी को डूबा नहीं देता तथा बादल पृथ्वी पर जो उपकार करता है; वह निःसंदेह एकमात्र
धर्म का ही प्रभाव है। इसमें अनर्थ का परिहार और अर्थ प्राप्ति फल कहा है ॥९६।। अब साधारणधर्म का साधारण फल कहते हैं।४२३। न ज्वलत्यनलस्तिर्यग्, यदूर्ध्वं वाति नानिलः । अचिन्त्यमहिमा तत्र, धर्म एव निबन्धनम् ॥९७॥ अर्थ :- जगत् में अग्नि की ज्वालाएँ यदि तिरछी जाती तो वह भस्म हो जाता और वायु ऊर्ध्वगति करता तो जीवों
का जीना कठिन हो जाता। किन्तु ऐसा नहीं होता, इसका कारण धर्म का अचिन्त्य प्रभाव ही है।।९७।। मिथ्यादृष्टि भी कहते हैं कि 'अग्नि की ज्वाला ऊपर को उठकर जलाती है और वायु तिरछी गति करता है, उसमें कोई अदृष्ट ही कारण है।' तथा· ।४२४। निरालम्बा निराधारा, विश्वाधारा वसुन्धरा । यच्चावतिष्ठते तत्र, धर्मादन्यन्न कारणम् ॥९८॥ अर्थ :- किसी अवलंबन के बिना, शेषनाग, कछुआ, वराह, हाथी आदि आधार के बिना इस चराचर विश्व का
आधार रूप पृथ्वी जो ठहरी हुई है, इसमें धर्म के शतिरिक्त अन्य कोई भी कारण नहीं है।।१८।। ।४२५। सूर्याचन्द्रमसावेतौ विश्वोपकृतिहेतवे । उदयेते जगत्यस्मिन् नूनं धर्मस्य शासनात् ॥९९॥ अर्थ :- यह सूर्य और चंद्रमा जगत् के परोपकार के लिए इस लोक में प्रतिदिन उदित होते रहते हैं, इसमें निश्चय
ही धर्म के शासन का प्रभाव है ।।१९।। ।४२६। अबन्धूनामसौ बन्धुरसखीनामसौ सखा । अनाथानामसौ नाथो, धर्मो विश्वैकंवत्सलः ॥१००॥ अर्थ :- जिसका इस संसार में कोई बंधु नहीं है उसका धर्म ही बंधु है; क्योंकि विपत्ति में सहायता करने वाला,
उससे पार उतारने वाला धर्म बंधु ही है। जिसका कोई मित्र नहीं है उससे प्रेम करने वाला धर्म ही मित्र है। जिसका कोई नाथ नहीं है, उसका योग और क्षेम करने वाला धर्म ही नाथ है। कहा है कि 'जो योग
और क्षेम करने वाला हो, वही नाथ कहलाता है। इसलिए जगत् में अद्वितीय वत्सल यदि कोई है तो वह धर्म ही है। गाय के द्वारा बछड़े को स्नेह से जो सहलाया जाता है, उसे वात्सल्य कहते हैं; उसके
समान सारे जगत् के लिए प्रीति (वत्सलता) का कारण होने से धर्म भी वत्सल है ॥१०॥ . अब अनर्थफल की निवृत्ति होने से सामान्य व्यक्ति भी धर्म करना चाहते हैं। अतः धर्म का फल कहते हैं।४२७। रक्षो-यक्षोरग-व्याघ्र-व्यालानलगरादयः । नापकर्तुमलं तेषां यैर्धर्मः शरणं श्रितः ॥१०१।।। अर्थ :- जिन्होंने धर्म का शरण स्वीकार किया है, उनका राक्षस, यक्ष, सर्प, व्याघ्र, सिंह, अग्नि और विष आदि
अपकार (नुकसान) नहीं कर सकते ॥१०१।। अब मुख्य अनर्थ रोकने के लिए और उत्तम पदार्थ की प्राप्ति रूप धर्म का फल कहते हैं।४२८। धर्मो नरकपाताल-पातादवति देहिनः । धर्मो निरुपमं यच्छत्यपि सर्वज्ञवैभवम् ॥१०२।।
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