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सम्यग्धर्म के १० भेद
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ९३ ३. शौच - अपने संयम पर पापकर्म रूपी लेप न लगने देना, शौच है। उसमें भी श्रावक के लिए अदत्तादानत्याग रूप या लोभाविष्ट होकर परधनग्रहणेच्छात्याग रूप अर्थशौच मुख्य है। लौकिक ग्रंथों में भी कहा है-सभी शौचों में अर्थशौच महान् है। जिसका जीवन अर्थ के मामले में शुचि (पवित्र) है, वह शुचि है। मिट्टी या जल से हुई शुचि (शुद्धि) वास्तविक शुचि नहीं है। (मनुस्मृति ५।१०६) इस प्रकार का अशुचिमान जीव इस लोक या परलोक में भावमल रूपी कर्मों का संचय करता है। उसे उपदेश दिया जाय, फिर भी वह अपने कल्याण की बात नहीं मानता। इसलिए यहां अदत्तादानत्याग रूप शौचधर्म समझना चाहिए।
४. ब्रह्मचर्य - नौ प्रकार की ब्रह्मचर्यगुप्ति से युक्त उपस्थ-संयम, गुप्तेन्द्रिय-विषयक संयम ब्रह्मचर्य है। 'भीमसेन' को संक्षेप में 'भीम' नाम से पुकारा जाता है, वैसे ही यहां 'ब्रह्मचर्य' को 'ब्रह्म' कहा है। ब्रह्मचर्य महान् होने से आत्मरमणता के लिए गुरुकुलवास का सेवन करना भी ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य अब्रह्म की निवृत्ति रूप भी है।
५. आकिंचन्य - जिसके पास कुछ भी द्रव्य न हो, वह अकिंचन होता है, उसका भाव आकिंचन्य है। आकिंचन्यधर्म वाले शरीरधारी मुनि उपलक्षण से शरीर, धर्मोपकरण आदि के प्रति या सांसारिक पदार्थों के प्रति निर्ममत्व होते हैं। वे निष्परिग्रही होकर अपने लिये भोजन-पानी आदि भी संयमयात्रा के निर्वाह के लिए ही लेते हैं। जैसे गाड़ी के पहिए की गति ठीक रखने के लिए उसकी धुरी में तेल डाला जाता है, वैसे ही शरीर रूपी गाड़ी की गति ठीक रखने के लिए वे मूर्छा रहित होकर आहार-पानी लेते हैं। रजोहरण और वस्त्रपात्रादि अन्य उपकरण भी संयम एवं शरीर की | रक्षा के लिए धारण करते हैं; किन्तु लोभ या ममता से धारण नहीं करते। यही परिग्रहत्याग रूप आकिंचन्य का रहस्य है।
६. तप - यह संवर और निर्जरा का हेतु रूप होता है, जिसका वर्णन पहले कर आये हैं। वह पूर्वोक्त बारह प्रकार का होता है, किंतु प्रकीर्ण रूप में अनेक प्रकार का भी है। वह इस प्रकार है-यवमध्य, वज्रमध्य, चांद्रायण, कनकावली, रत्नावली, सर्वतोभद्र, भद्रोत्तर, वर्धमान आयंबिलतप इत्यादि। बारह प्रकार की भिक्षुप्रतिमा भी तप है, जिसमें एक महीने से लेकर क्रमशः सात महीने तक सात प्रतिमाएँ है, उसके बाद सात-सात रात्रि की तीन प्रतिमाएँ हैं, फिर तीन | दिन-रात्रि की एक और एक दिन-रात्रि की एक प्रतिमा होती है।
७. क्षांति - शक्य हो या अशक्य उसे सहन करने के परिणाम बढ़ाना क्षमा है। क्रोध का निमित्त मिलने पर आत्मा में सदभाव एवं दुर्भाव का विचार करने से क्रोध करने से उत्पन्न होने वाले दोषों पर विचार करने से. बालस्वभाव का चिंतन करने से, अपने कृतकों के उदय में आने का चिंतन करने से एवं क्षमागुण धारण करने से होने वाले लाभ का विचार करने से क्षमा उत्पन्न होती है। यदि दूसरे लोग मुझ में दोष के कारण मेरे पर आक्रोश करते हैं, वह तो मेरे ही दोषों के अस्तित्व (सद्भाव) को कहते हैं। यदि मुझ में वह दोष नहीं है, तो वे असत्य बोलते हैं, अतः मुझे उन पर | क्षमा करनी चाहिए। कहा भी है-यदि कोई आक्रोश करता है तो बुद्धिमान समझदार आदमी को वस्तुतत्त्व पर विचार करना चाहिए कि-यदि उसका आक्रोश सत्य है तो उस पर कोप करने से क्या लाभ और यदि असत्य है तो अज्ञानी के प्रति क्रोध करने से भी क्या फायदा। यों क्रोध के दोषों का चिंतन करके क्षमा रखनी चाहिए। क्रोध वाला तो अवश्य ही पापकर्म का बंधन करता है; उससे दूसरे को मारने की भावना जागती है, अहिंसावत ही खत्म हो जाता है। क्रोध के आवेश में आकर साधक अपने सत्यव्रत को भी नष्ट कर देता है। क्रोधावेश में दीक्षा-अवस्था की बात को भूल जाता है। और अदत्तादान-चोरी करता है। द्वेष में आकर पर-पाखंडिनी स्त्री के साथ (मानसिक रूप से) अब्रह्मसेवन करके चौथे व्रत का भी खंडन करता है। अत्यंत क्रोधी बना हुआ योगी अविरति गृहस्थों से सहायता की अपेक्षा रखकर उन पर ममता-मूर्छा भी करता है, इससे पांचवाँ व्रत भी नष्ट हो जाता है; फिर उत्तरगुणों के भंग की तो बात ही कहां रही? वे भी खत्म हो जाते हैं। क्रोधी आत्मा गुरु का अपमान करके आशातना कर बैठता है। इस प्रकार क्रोध के दोषों पर
स्वभाव (बेसमझी वाले) पर भी क्षमा रखे। उसके स्वभाव पर यों चिंतन करे कि बाल (अज्ञानी) जीव किसी समय परोक्ष तो कभी प्रत्यक्ष आक्रोश करता है. कभी तो आक्रोश करते हए ताडन कर पीटने लगता है, कभी धर्म भ्रष्ट करना चाहता है। उस समय यह सोचे कि मेरा इतना सद्भाग्य है कि यह मेरे पीठ
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