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धर्मस्वाख्यात-भावना का स्वरूप और सम्यग्धर्म के १० भेद
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ९२ से ९३ कर्मसमूह छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। यदि संवर और निर्जरा इन दोनों से दोनों ओर से कर्मों को क्षय करने का कार्य जारी रहे तो आत्मा प्रकर्षस्थिति प्राप्त करके इन्हीं दोनों की स्थिरता (ध्रुवता) से मोक्ष प्राप्त कर लेता है। दोनों प्रकार के तपश्चरण से निर्जरा करता हुआ निर्मलबुद्धि आत्मा एक दिन सर्वकर्मक्षय रूपी मोक्ष प्राप्त करता है। इस प्रकार की निर्भयता से तप को पुष्ट करने वाली, समग्र कर्मों की विघातक, संसारसमुद्र पार करने के लिए सेतुबंध के समान, ममताघात में कारणभूत निर्जराभावना का चिंतन करना चाहिए ।।९१।।
अब धर्म-स्वाख्यात-भावना के संबंध में कहते हैं।४१८। स्वाख्यातः खलु धर्मोऽयं, भगवद्भिर्जिनोत्तमैः । यं समालम्बमानो हि, न मज्जेद् भवसागरे ॥९२॥ अर्थ :- जिनोत्तम भगवंतों ने इस धर्म का भलीभांति प्रतिपादन किया है। जिसका आलंबन लेने वाला जीव
संसारसागर में नहीं डूबता ।।१२।। भावार्थ :- धर्म का विशेष यहां सु+आ+ख्यात स्वाख्यात है, जिसका अर्थ है-कुतीर्थिक धर्म की अपेक्षा प्रधानत्व से युक्त, अविधि का निषेध करने वाला तथा मर्यादाओं से निश्चित किया हुआ एवं वीतराग-सर्वज्ञों द्वारा कथित धर्म ।।१२।।
अब इस सम्यग्धर्म के दस भेद कहते हैं।४१९। संयमः सूनृतं शौचं, ब्रह्माऽकिञ्चनता तपः । शान्तिर्दिवमृजुता, मुक्तिश्च दशधा स तु ॥९३।। __ अर्थ :- वह दस प्रकार का है-१. संयम, २. सत्य, ३. शौच, ४. ब्रह्मचर्य, ५. अकिंचनता, ६. तप, ७. क्षमा,
८. मृदुता, ९. सरलता और १०. निर्लोभता ।।१३।। [इसे श्रमण धर्म भी कहा है] . ___ व्याख्या :- १. संयम - का अर्थ जीवदया है। वह १७ प्रकार का है। पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय पर संयम; दो-तीन-चार और पांच इंद्रियों वाले जीवों का मन-वचन-काया द्वारा कृत, कारित और अनुमोदन से संरंभ, समारंभ और आरंभ के त्याग रूप संयम ९ प्रकार का है। अजीव रूप पुस्तकादि का संयम यह दशवाँ | भेद है। दुःषमकालदोष के प्रभाव से, बुद्धिबल-कम होने से शिष्यों के उपकारार्थ यतनापूर्वक प्रतिलेखन-प्रमार्जन सहित पुस्तकादि रखना अजीवसंयम है। इसी प्रकार प्रेक्षा-संयम है, बीज, जंतु, हरी वनस्पति आदि से रहित स्थंडिलभूमि आंख से देखकर तथा शयन, आसन आदि देखकर करना। सावद्यव्यापारयुक्त गृहस्थ को प्रेरणा न करना; सावद्यकम के प्रति उपेक्षा करना उपेक्षा-संयम है। आंख से दृष्टि-प्रतिलेखन करना, रजोहरणादि से भूमि पर शयन-आसनादि का प्रमार्जन करना तथा एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते समय पृथ्वी पर चलते हुए सचित्त, अचित्त या मिश्र पृथ्वी की धूल पैरों के लगी हो तो उसका प्रमार्जन करना-प्रमार्जनसंयम है। दोषयुक्त, अनैषणीय आहारपानी हो या अनुपकारक वस्त्र-पात्र आदि जीवों से संसक्त हों तो ऐसे अन्न-जल-वस्त्रादि को निरवद्य निर्जीव स्थान पर विवेकपूर्वक परठना परिष्ठापनसंयम है। किसी की हानि, अभिमान, ईर्ष्या आदि से युक्त मन से निवृत्त होकर उसे धर्मध्यान आदि में प्रवृत्त करना मनःसंयम है। हिंसाकारी, कठोर, कटु आदि सावध वचनों से निवृत्त होकर शुभभाषा में वचन की प्रवृत्ति करना वचनसंयम है। काया से दौड़ना, भागना, कूदना, निरर्थक भटकना आदि सावध प्रवृत्तियों का त्यागकर शुभ क्रिया में प्रवृत्ति करना कायसंयम है। इस तरह प्राणातिपात निवृत्ति रूपी संयम १७ प्रकार का है-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, दो, तीन, चार और पांच इंद्रियों वाले जीव, अजीव, प्रेक्षा, उपेक्षा, प्रमार्जना, प्रतिलेखना, परिष्ठापना, मन, वचन और काया का संयम। (आवश्यक सूत्र.)
२. सूनृत - अर्थात् प्रिय सत्यवचन बोलना। कठोरता, पैशुन्य (चुगली), असभ्यता, चपलता या जीभ दबाकर, रुक-रुककर, हकलाते हुए, शीघ्रता से, संदेहयुक्त, ग्राम्य, राग-द्वेष युक्त, कपट-पाप सहित, निंदा आदि वचनों से बचकर माधुर्य, उदार, स्पष्ट, उत्तम पदार्थ प्रकट करने वाला, श्रीअरिहंतप्रभु के कथनानुसार, सार्थक, लोकव्यवहार प्रचलित, भावार्थग्राह्म, देशकालानुरूप, संयमयुक्त, परिमिताक्षरयुक्त, हितकारी, गुणों से पूर्ण, वाचना-पृच्छा आदि के समय पूछने पर उत्तर देने के लिए, मृषावाद रहित वचन बोलना सूनृत (सत्य) है।
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