Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 390
________________ अभ्यंतर तप की व्याख्या योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ९० शरीर की रक्षा करने के लिए अपराध रूपी शल्य से होने वाले भाव रूपी घाव की चिकित्सा करनी चाहिए। भिक्षाचर्या आदि में लगे हुए अतिचार रूप पहले प्रकार के घाव की शुद्धि गुरु के पास जाकर आलोचना करने-प्रकट करने मात्र से हो जाती है। अकस्मात् समिति या गुप्ति से रहित होने के अतिचार रूपी दूसरे प्रकार के घाव की शुद्धि प्रतिक्रमण से होती है, शब्दादि विषयों के प्रति जरा राग-द्वेष रूपी तृतीय अतिचार (व्रण) लगा हो तो आलोचना व प्रतिक्रमण दोनों से शुद्धि होती है। चौथे में अनैषणीय आहारादि-ग्रहण रूपी अतिचार जानकर उसका विवेक करने (परठने) से शुद्धि होती है। पांचवां अतिचार-व्रण कायोत्सर्ग से, छट्ठा अतिचार-व्रण तप से और सातवां अतिचार-व्रण छेद विशेष से शुद्ध होता है। (आवश्यक नि. १४३४-१४४२) प्रमाददोष का त्याग करना, भाव की प्रसन्नता से शल्य-अनवस्था दूर करना, मर्यादा का त्याग न करना, संयम की आराधना दृढ़ता पूर्वक करना इत्यादि प्रायश्चित्त के फल हैं। २. वैयावृत्य - निग्रंथ-प्रवचन या आगम में कथित क्रियाओं के अनुष्ठान में प्रवृत्ति करना या उसका भाव वैयावृत्य है। व्याधि, परिषह, मिथ्यात्व आदि का उपद्रव होने पर उसका प्रतीकार करना तथा बाह्यद्रव्य के अभाव में अपनी काया से अपने पूज्य पुरुषों या रुग्ण आदि साधुओं या संघ आदि की अनुरूप परिचर्या, उपचार या सेवाशुश्रूषा करना भी वैयावृत्य है। १. आचार्य, २. उपाध्याय, ३. स्थविर, ४. तपस्वी, ५. नवदीक्षित, ६. रुग्ण-साधु, ७. समान धर्मी, ८. कुल, ९. गण और १०. संघ ये १० वैयावृत्य के उत्तम पात्र है। इनकी व्याख्या इस प्रकार है-आचार्य-जो स्वयं पांच आचारों का विशुद्ध पालन करे एवं दूसरों से पालन करावे; अथवा जिनकी आचर्या-सेवा की जाये, वह आचार्य है। इसके पांच प्रकार है-१. प्रव्राजकाचार्य, २. दिगाचार्य, ३. उद्देशकाचार्य, ४. समुद्देशकाचार्य और ५. वाचनाचार्य। सामायिक, व्रतादि का आरोपण करने वाले प्रव्राजकाचार्य कहलाते हैं। सचित्त, अचित्त, मिश्र वस्तु की अमुज्ञा देने वाले दिगाचार्य होते हैं। योगादि क्रिया कराने वाले तथा श्रुतज्ञान का प्रथम उद्देश करने वाले उद्देशंकाचार्य होते हैं। उद्देश करने वाले गुरु के अभाव में उसी श्रुत का समुद्देश और अनुज्ञा की विधि करने वाले समुद्देशकानुज्ञाचार्य होते हैं। परंपरागत उत्सर्ग-अपवाद रूप अर्थ की जो व्याख्या करें, प्रवचन का अर्थ बताकर जो उपका निषद्या आदि की जो अनुज्ञा दें, आम्नाय के अर्थ को बतावें, आचारविषयक या स्वाध्यायविषयक कथन करें; वे वाचनाचार्य कहलाते हैं। इस तरह पांच प्रकार के आचार्य होते हैं। इन आचार्यों की अनुज्ञा से साधुसाध्वी विनय पूर्वक जिसके पास शास्त्रों का अध्ययन-स्वाध्याय करें, वह उपाध्याय है। स्थविर का अर्थ सामान्यतया वृद्ध साधु होता है। इनके तीन भेद हैं-श्रुतस्थविर, दीक्षा स्थविर और वयःस्थविर। समवायांगसूत्र तक का अध्ययन जिसने कर लिया हो, वह | श्रुतस्थविर, जिनकी मुनिदीक्षा को २० वर्ष हो गये हों, वह दीक्षास्थविर और जो साठ वर्ष या इससे अधिक उम्र का हो गया हो, वह वयःस्थविर कहलाता है। चार उपवास से लेकर कुछ समय ६ मास तक की तपस्या करने वाला तपस्वी कहलाता है। नई दीक्षा लेने वाला, शिक्षा देने के योग्य साधु शैक्ष्य या नवदीक्षित कहलाता है। रोगादि से निर्बल क्लिष्ट शरीर वाला मुनि ग्लानसाधु होता है। बारह प्रकार के संभोग (व्यवहार) के लेने-देने वाले, व्यवहार वाले समानधर्मी या साधर्मिक कहलाते हैं। एक ही जाति या समान समाचारी (आचारसंहिता) वाले साधुसाध्वियों के गच्छों के समूह को समुदाय तथा चंद्रादि नाम वाले समूह को कुल, एक आचार्य की निश्राय में रहने वाले साधु-समुदाय को गच्छ एवं कुल के समूह को गण (जैसे कोटिक आदि गण) तथा साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकाओं का चतुर्विध समुदाय संघ कहलाता| है। इन आचार्य से लेकर संघ आदि की, आहार, पानी, वस्त्र, पात्र, उपाश्रय, पाट, चौकी, पाटले, शय्या, संस्तारक आदि धर्म-साधन देकर या औषध भिक्षा आदि देकर सेवाभक्ति करना, रोग आदि संकट या कोई उपद्रव आने पर उनका वैयावृत्य करना, अटवी पार करने में सहयोग देना, उपसर्ग आदि के मौके पर उनकी सारसंभाल करना इत्यादि वैयावृत्य के रूप है। ३. स्वाध्याय - अकाल के समय को टालकर, स्वाध्यायकाल में मर्यादापूर्वक स्वाध्याय करना, यानी पोरसी आदि की अपेक्षा से सूत्रादि का अध्ययन करना स्वाध्याय है। स्वाध्याय पांच प्रकार का है-वाचना, पृच्छना, परावर्तन (पर्यटना), अनुप्रेक्षा और धर्मकथा। शिष्यों को सूत्रादि पढ़ाना-वाचना है; सूत्र के अर्थ में संदेह होने पर उसके निवारणार्थ या अर्थनिश्चय करने के लिए पूछना-पृच्छना है; सूत्र और अर्थ का मन में चिंतन-अनुप्रेक्षा है; शुद्ध 368

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