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प्रायश्चित्त तप के दस भेद, उनका लक्षण और फल
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ९० परंपरानुसार कायक्लेश विशिष्ट आसन आदि करने से होता है। शरीर की श्रृंगार-विभूषा, साजसज्जा और शुश्रूषा न | करना, केशलोच इत्यादि करना भी कायक्लेश है। शंका होती है-परीषह और कायक्लेश में क्या अंतर है? इसका समाधान यह है-स्वेच्छा से क्लेश सहन करना कायक्लेश है और अनिच्छा से या दूसरे द्वारा दिये हुए क्लेशों-दुःखों का अनुभव करना परिषह है। इस प्रकार इन दोनों में अंतर है।
संलीनता - विविक्त आसन, स्त्री-पुरुष-नपुंसक से रहित शून्य घर, देवकुल, सभा, पर्वत-गुफा आदि किसी एकांत, शांत, विविक्त स्थान में रहना, अपनी इंद्रियों या अंगोपांगों को सिकोड़कर रखना, विषयों से गोपन-(रक्षण) करना, मन, वचन, काया, इंद्रियों तथा कषायों को रोकना संलीनता तप है ।।८९।। __ ये छह प्रकार के बाह्य तप हुए। ये तप बाह्यद्रव्यों की अपेक्षा रखते हैं, दूसरों को भी प्रत्यक्ष दिखायी देते हैं, कुतीर्थियों एवं गृहस्थों के लिए भी आचरणीय है; अतः इन्हें बाह्यतप कहा गया है। इन छह प्रकार के बाह्यतपों से आसक्तित्याग, शरीर का लाघव, इंद्रियविजय करने से संयम की रक्षा और कर्मों की निर्जरा होती है।
अब आभ्यंतर तप के भेद बताते हैं||४१६। प्रायश्चित्तं, वैयावृत्त्यं, स्वाध्यायो विनयोऽपि च । व्युत्सर्गोऽथ शुभं ध्यानं, षोढेत्याभ्यन्तरं तपः ॥९०।।
अर्थ :- प्रायश्चित्त, वैयावृत्य, स्वाध्याय, विनय, व्युत्सर्ग और शुभध्यान ये ६ प्रकार के आभ्यंतर तप है।।१०।।
व्याख्या :- १. प्रायश्चित्त - मूलगुण और उत्तरगुण में थोड़े-से भी अतिचार लगे हों, तो वे गुणों को मलिन कर देते हैं। उनकी शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त अथवा प्रचुर प्रमाण में जिन आत्माओं में से आचार धर्म चला जाय, वे अधिकतर साधुसाध्वियों ही होती है, उनके द्वारा विशुद्ध रहने के लिए जो विचार किया जाता है, स्मरण किया जाता है, वह प्रायश्चित्त रूप अनुष्ठान विशेष कहलाता है, अथवा प्रायश्चित्त वह कहलाता है, जहां अतिचार (व्रतों में) प्रायः यानी अधिकतर मन (चित्त) में ही लगे हों, वचन और काया से फिर वह सेवन नहीं करता हो। अथवा प्रायः यानी पाप और चित्त अर्थात् उसका विशोधन अर्थात्-जिससे पापों की शुद्धि होती हो, वह प्रायश्चित्त है। चिति धातु संज्ञान और विशुद्धि अर्थ में प्रयुक्त होती है। (तत्त्वार्थ भाष्य ८-२२) प्रायश्चित्त १० प्रकार का है-१. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. तदुभय (मिश्र), ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. मूल, ९. अनवस्थाप्य और १०. पारांचिक।
१. आलोचना - आलोचना का अर्थ है-गुरु के सम्मुख अपने अपराध प्रकट करना। अपराध जिस प्रकार सेवन किया हो, उसी क्रम से उनके सामने व्यक्त करना चाहिए। जिस अपराध में अधिक प्रायश्चित्त आता हो, उसकी पहले आलोचना करे, बाद में क्रमशः अंत तक आलोचना करे। जिस प्रकार से दोषों का आसेवन किया हो, उसी प्रकार क्रमानुसार दोषों को गुरु के सामने प्रकट करना आलोचना है। प्रायश्चित्त आनुलोम्य। गीतार्थ शिष्य के लिए है 'वह पंचक, दशक, पंचदशक क्रम से गुरु, लघु, अपराध के अनुरूप जानकर यदि बड़ा अपराध हो तो प्रथम प्रकट करे, तदनंतर उससे छोटा, फिर उससे भी छोटा इस क्रम से आलोचना करनी चाहिए।'
२. प्रतिक्रमण - अतिचार के परिहार पूर्वक वापिस स्व-स्वरूप में लौट आना प्रतिक्रमण है। वह मिथ्या दुष्कृतयुक्त सच्चे हृदय से पाप के प्रायश्चित्त के सहित होता है। उसमें ऐसा निश्चय किया जाता है कि फिर ऐसा पाप नहीं करूंगा। __३. तदुभय (मिश्र) - जिसमें आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों साथ हों। पहले गुरु के सामने आलोचना करना; बाद में गुरु की आज्ञानुसार प्रतिक्रमण करना।
४. विवेक - सचित्त या जीवयुक्त आहार, पानी, उपकरण, शय्या आदि पदार्थों का त्याग करना।
५. व्युत्सर्ग-कायोत्सर्ग - अनैषणीय, दोषयुक्त आदि पदार्थों का त्याग करने में, जाने-आने में, पापयुक्त (बुरे) स्वप्न-दर्शन में, नौका में बैठकर सामने वाले किनारे पर जाने में, शौचादि के लिए स्थंडिल जाने-आने में, मल-मूत्रपरिष्ठापन में, विशिष्ट प्रणिधान पूर्वक, मन-वचन-काया के व्यापार का त्याग करने के रूप में अर्थात् उन दोषों को मिटाने के लिए कायोत्सर्ग रूप में प्रायश्चित्त करना।
६. तप - छेदग्रंथ अथवा जीतकल्पसूत्र के अनुसार यदि किसी तप से विशुद्धि होती हो तो उस तप को करना तथा उसका सेवन करना।
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