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निर्जराभावना का स्वरूप
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ८७ से ८९
पुनः दोनों प्रकार की निर्जरा की व्याख्या करते हैं
अर्थ
|| ४१३ । ज्ञेया सकामा यमिनाकामा त्वन्यदेहिनाम् । कर्मणां फलवत्पाको, यदुपायात् स्ववतोऽपि हि ||८७|| संयमी पुरुषों की निर्जरा सकाम समझनी चाहिए और उनसे अतिरिक्त जितने भी एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव हैं, उनकी निर्जरा अकाम है। जैसे फल दो प्रकार से पकता है, एक तो उपाय से, दूसरे स्वतः ही पेड़ पर; वैसे ही जिसमें कर्मों को तप आदि उपायों से शीघ्र भोगकर क्षय किया जाता है, वह सकामनिर्जरा है और जिसमें समय पर कर्म स्वतः उदय में आकर अनिच्छा से जबरन भोगे जाते हैं, तब क्षय होते हैं, वह अकाम निर्जरा है ।। ८७ ।।
व्याख्या :- 'मेरे कर्मों की निर्जरा हो', इस अभिप्राय से जो संयमी पुरुष कर्मक्षय करने के लिए तपस्या करते हैं, उन्हें उस तपस्या से इहलौकिक या पारलौकिक सुख की इच्छा नहीं होती; वही सकामनिर्जरा है। संयमी के अतिरिक्त | एकेन्द्रिय आदि जीवों की कर्मक्षय रूप फल से निरपेक्ष जो निर्जरा है, वह अकामनिर्जरा है। वह इस प्रकार होती है| पृथ्वीकाय से वनस्पतिकाय तक एकेन्द्रिय जीव शर्दी, गर्मी, वर्षा, जल, अग्नि, शस्त्र आदि के घाव, छेदन - भेदन आदि | के कारण असातावेदनीय कर्म का अनुभव करते हैं, इससे नीरसकर्म अपने आत्मप्रदेश से अलग हो जाते हैं। विकलेन्द्रिय जीव भूख, प्यास, ठंड, गर्मी आदि के रूप में तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंच छेदन - भेदन, अग्नि, शस्त्र आदि के रूप में | असातावेदनीय (दुःख) कर्म भोगते हैं। नरक में तीन प्रकार की भयंकर वेदना होती है- भूख, प्यास, व्याधि, दरिद्रता | आदि दुःखों के रूप में वहां असातावेदनीय कर्म भोगते हैं। यही हाल असंयमी मनुष्यों का है। मतलब यह कि असंयमी | जीव बिना इच्छा के आ पड़े हुए दुःखों को लाचारी से परवश होकर भोगते हैं और इस प्रकार कर्मों का आत्मप्रदेश से | पृथक् हो जाना अकामनिर्जरा है। यहां शंका होती है कि सकाम और अकामनिर्जरा के दोनों भेदों का पृथक् स्वरूप तो कोई नहीं दिखाई देता? इसके समाधान के लिए दृष्टांत देते हैं- असातावेदनीय कर्म का फलभोग दो प्रकार से होता | है - अपने आप और उपाय से । जैसे वृक्ष के फल एक तो पेड़ पर स्वतः पककर नीचे गिर जाते हैं, दूसरे उपाय से पकाये | जाते हैं। आम आदि फलों को निर्वातस्थान में घास से ढ़ककर पकाया जाता है, या फिर वे काल (समय) होने पर स्वतः पेड़ पर ही पक जाते हैं जिस प्रकार फलों का पकाना दो तरह से होता है, उसी प्रकार कर्मों की निर्जरा भी दो तरह से होती है; एक तो तपस्या आदि उपाय से शीघ्र निर्जरा हो जाती है, वह सकामनिर्जरा है और कर्मोदय से कर्म निरुपाय होकर भोगे जाय, वहां अकामनिर्जरा है। इस कारण निर्जरा के दो भेद कहे हैं। फिर शंका उठाई जाती है कि फल दो प्रकार से पकता है, इससे कर्मनिर्जरा का क्या वास्ता? बेशक संबंध है, फल पकने के प्रकारों की तरह, कर्मनिर्जरा भी | दो प्रकार से होती है। यहां पकना निर्जरा रूप है। निर्जरा में कर्मफल का पकना होता है ।। ८७ ।।
अब सकामनिर्जरा के हेतु दृष्टांत द्वारा स्पष्टतः समझाते हैं
| ४१४। सदोषमपि दीप्तेन, सुवर्णं वह्निना यथा । तपोऽग्निना तप्यमानस्तथा जीवो विशुध्यति ॥८८॥ जैसे सदोष (मैलसहित) सोना प्रदीप्त आग में तपाने पर शुद्ध हो जाता है, वैसे अशुभकर्म रूप दोष से युक्त जीव भी तप रूपी अग्नि में तपने पर विशुद्ध हो जाता है ||८८ ॥
अर्थ :
व्याख्या :
• जिससे रस आदि धातु एवं कर्म तपें, उसे तप कहते हैं। कहा भी है- जिससे रस, रुधिर, मांस, चर्बी, हड्डी, मज्जा और शुक्र आदि धातुएँ एवं अशुभकर्म तपकर भस्म हो जाय, उसे निरुक्ति (व्युत्पत्ति) के अनुसार तप कहते हैं। वही निर्जरा का हेतु है। कहा है कि 'यदि पुष्ट होते हुए भी दोषों का प्रयत्न पूर्वक शोषण किया जाय तो दोषक्षय होते हैं, इसी प्रकार संवर से रोके हुए संचित कर्मों को आत्मा तपस्या से जला देता है ।। ८८ ।।
तप बाह्य और आभ्यंतर दो प्रकार का है। सर्वप्रथम ब्राह्यतप के भेद कहते हैं
।४१५। अनशनमौनोदर्यं, वृत्तेः सङ्क्षेपणं तथा । रसत्यागस्तनुक्लेशो, लीनतेति बहिस्तपः ||८९||
अर्थ :- आहारत्याग रूपी अनशन, ऊनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसपरित्याग, कायक्लेश एवं संलीनता; इस प्रकार बाह्यतप ६ प्रकार का है ।। ८९ ।।
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