Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 387
________________ निर्जरा भावना तप का स्वरूप योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ८९ व्याख्या :- १. अनशन - तप दो प्रकार का है। एक परिमित समय के लिए, दूसरा जीवनपर्यंत तक का। इत्वरिक | अनशन - जो नमस्कारसहित (नौकारसी) से लेकर भगवान् महावीर के शासन में ६ महीने (लगातार) निराहार तक होता है। श्री ऋषभदेव के शासन में एक वर्ष तक और बीच के २२ तीर्थकरों के शासन में ८ मास तक का अनशन हो सकता था। जीवनपर्यंत का अनशन तीन प्रकार का है-पादपोगमन, इंगिनी और भक्तप्रत्याख्यान। पादपोगमन के दो भेद हैं-व्याघातसहित, व्याघातरहित। आयुष्य शेष होने पर किसी व्याधि के उत्पन्न होने से साधक महावेदना भोग रहा हो, उस समय इस प्रकार का अनशन करके प्राणत्याग किया जाय, वह सव्याघात होता है; दूसरा निर्व्याघात अनशन इस प्रकार का होता है कि कोई महाभाग्यशाली यह सोचकर कि 'मैंने अपने शिष्य को ग्रहण व आसेवन शिक्षा देकर | तैयार किया, गच्छ का भलीभांति पालन किया, उग्रविहार भी किया, अब उम्र पक जाने के कारण समाधिमरण के लिए तैयार हुआ हूं' इस प्रकार उम्र परिपक्व हो जाने पर त्रसस्थावरजंतुरहित स्थान पर वृक्ष की तरह निश्चेष्ट होकर स्थिर रहे, चित्त प्राण छूटने तक प्रशस्त ध्यान में स्थिर रखे। इस कारण पादपोगमन अनशन दो प्रकार का कहा। इंगिनीमरणशास्त्रोक्त क्रियाविशेष से युक्त जो अनशन होता है, वह इंगिनी है। इस मरण को स्वीकार करने वाला उसी क्रम से | आयुष्य की स्थिति जानकर, तथाप्रकार की स्थंडिलभूमि में अकेला चार प्रकार के आहार का त्याग करके छाया से धूप में और धूप से छाया में आते-जाते, स्थानपरिवर्तन करते समय शुभध्यानपरायण रहकर समाधि पूर्वक प्र है। तीसरा यावज्जीव अनशन भक्तप्रत्याख्यान है। इसमें साधक गच्छ-संप्रदाय में रहता हुआ कोमल संथारा बिछाकर, शरीर और उपकरणों की ममता का त्याग करके चारों आहार का प्रत्याख्यान करे। स्वयं नमस्कारमं अथवा सेवा में रहे हुए साधु नमस्कारमंत्र सुनाएँ। करवट बदलना हो, तब करवट बदले और समाधि पूर्वक मृत्यु स्वीकार करे, उसे भक्तंप्रत्याख्यान अनशन कहते हैं। २. ऊनोदरी - जिसमें उदर के लिए पर्याप्त आहार से कम किया जाय, यानी उदर ऊनकम खाया जाय, वह ऊनोदरी तप कहलाता है। उसकी क्रिया या भाव औनादर्य है। इसके चार भेद हैं-अल्पाहार-ऊनोदरी, आधे से कम ऊनोदरी, अर्ध-ऊनोदरी और प्राप्त आहार से कुछ कम ऊनोदरी। पुरुष का आहार ३२ कौर का माना जाता है। यहां उत्कृष्ट और जघन्य छोड़कर मध्यम कवल का ग्रहण करना। अपने मुख-विवर के अनुसार कवल लेना चाहिए; जिससे मुख विकृतिमय न दिखायी दे। आठ कौर का आहार करना अल्पाहार ऊनोदरी है, जिसमें आधे के करीब (निकट) यानी १२ कौर लिये जाय. वह अपार्ध-ऊनोदरी होती है: सोलह कर लिये जाय तो अर्ध-ऊनोदरी होती है। बत्तीस कौर का आहारप्रमाण माना जाता है, उनमें एक, दो आदि क्रम से कम करते-करते चौबीस कौर तक लेने से कुछ न्यून ऊनोदरी कहलाता है। चारों प्रकारों वाली ऊनोदरी में भी एक-एक कौर कम करने से अनेक भेद वाली ऊनोदरी हो सकती है। यह सब ऊनोदरी-विशेष तप है। स्त्री का आहार २८ कौर का माना जाता है। कहा भी है-पुरुष की कुक्षि बत्तीस कौर (ग्रास) आहार से पूर्ण हो जाती है, जबकि स्त्री का आहार २८ कौर का समझना। (पि. नि. ६४२) पूर्वोक्त भेदों के अनुसार स्त्री के लिए भी न्यून आहारादि ऊनोदरी तप समझ लेना चाहिए। ३. वृत्तिसंक्षेप - जिससे जीवन टिक सके, उसे वृत्ति कहते हैं। उस वृत्ति का संक्षेप करके दत्ति-परिमाण करना या एक-दो-तीन आदि घर का अभिग्रह (नियम) करना अथवा मोहल्ला, गांव या आधे गांव का नियम करना। अभिग्रह के अंतर्गत द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप से भी नियम लिया जाता है। ४. रसपरित्याग - जो शरीर और धातु को पुष्ट करे, उसे रस कहते हैं; यह रस विकार का कारण होने से शास्त्रीय | भाषा में इसे 'विग्गई' अथवा 'विकृतिक' कहते हैं। इसमें मद्य, मांस, मधु, मक्खन', घी, दूध, दही, तेल, गुड़, पकवान मिठाई इत्यादि विग्गई का त्याग करना रस-त्याग है। ५. कायक्लेश- आगमोक्त-विधि के अनुसार धर्मपालन के लिए काया से कष्ट सहना। यहां शंका होती है कि 'शरीर तो अचेतन रूप है, फिर उसे कायक्लेश कैसे हो सकता है?' इसके उत्तर में कहते हैं-शरीर और शरीरधारी जीव का क्षीर-नीर-न्यायेन अभेद-संबंध है। इस कारण आत्मा के क्लेश को कायक्लेश कहा जा सकता है। 1. इन चार को महाविगई कहा है अतः उसका सर्वथा त्याग करने का विधान है। 365

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