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संवरभावना एवं निर्जरा भावना
अब योग, प्रमाद और अविरति के प्रतिपक्ष को कहते हैं
। ४१० । तिसृभिगुप्तिभिर्योगान्, प्रमादं चाप्रमादतः । सावद्ययोगहानेनाविरतिं चापि साधयेत् ॥८४॥ अर्थ :- मन, वचन और काया के योग (व्यापार) को मन, वचन और काया की रक्षा रूप तीन गुप्तियों द्वारा, मद्यपान, विषय- सेवन, कषाय, निद्रा, विकथा रूप पांच प्रकार के अथवा अज्ञान, संशय, विपर्यय, राग, द्वेष, स्मृतिभ्रंश, धर्म में अनादर, योगों की दुष्प्रवृत्ति रूप आठ प्रकार के प्रमाद के प्रतिपक्षी अप्रमाद को सिद्ध करे और सावद्य (पाप) व्यापार वाले योग को त्यागकर अविरति को विरति से सिद्ध करे ॥ ८४ ॥ अब मिथ्यात्व एवं आर्त्त - रौद्रध्यान के प्रतिपक्षी कहते हैं
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ८४ से ८६
अर्थ :
| ४११ | सद्दर्शनेन मिथ्यात्वं, शुभस्थैर्येण चेतसः । विजयेतात - रौद्रे च संवरार्थ कृतोद्यमः ||८५ || सम्यग्दर्शन से मिथ्यात्व पर विजय प्राप्त करे, धर्मध्यान- शुक्लध्यान रूप चित्त की स्थिरता से आर्त्तरौद्रध्यान पर विजय प्राप्त करे। कौन करे? संवर के लिए उद्यम करने वाला योगी करे ।। ८५ ।। इस संबंधी आंतरश्लोकों का भावार्थ कहते हैं
व्याख्या : - जिस घर के चारों तरफ राजमार्ग हों और बहुत दरवाजे हो और वे बंद नहीं किये गये हो तो उनमें धूल अवश्य घुसती है। और यदि अंदर की दीवार खिड़की या दरवाजे पर तेल लगा हो, वे चिकने हों तो धूल उस | पर अच्छी तरह चिपक कर उनके साथ एक रूप हो जाती है। परंतु दरवाजे बंद किये गये हों तो धूल अंदर प्रवेश नहीं कर सकती और न तेल के साथ एक रूप बनकर चिपक भी सकती है। अथवा मान लो, एक तालाब है, उसमें पानी | आने के सभी रास्ते खोल दिये जाय तो पानी उसमें तेजी से घुस जाता है और अगर पानी आने के द्वार बंद कर दिये | जाय तो जरा भी पानी उसमें नहीं आ सकता। जैसे नौका में छिद्र हो जाये तो उसमें पानी भर जाता है, किन्तु छिद्र बंद कर दिया जाय तो उसमें जरा भी पानी प्रवेश नहीं कर सकता; वैसे ही आस्रवद्वार रूपी त्रियोगों को चारों तरफ से रोक दिया जाय तो संवर स्वरूप आत्मा में कर्मद्रव्य का प्रवेश नहीं हो सकता। मतलब यह है कि संवर करने से आस्रवद्वार का निरोध होता है। और क्षमा आदि भेद से संवर अनेक प्रकार का है। जिस जिसका संवर किया हो, उसे उस संवर | के नाम से प्रतिपादन किया जाता है, फिर उस गुणस्थानक में जो-जो संवर होता है, उसे उसी संवर के नाम से पुकारा | जाता है। जैसे मिथ्यात्व का अनुदय हो तो उस गुणस्थानक में मिथ्यात्वसंवर कहलाता है। तथा देशविरति आदि में, प्रशांत और क्षीणमोहादिक गुणस्थान में कषायसंवर इस तरह आस्रवनिरोध के कारण रूप संवर का संवरभावना का भव्यजीव चिंतन करे । इति
| अविरति का संवर और अप्रमत्तसंयतादि में प्रमादसंवर माना गया है। | होता है; अयोगिकेवलिगुणस्थान में संपूर्ण योग का संवर होता | विस्तृत वर्णन किया। अतः भावनागण - समुदाय में शिरोमणि संवरभावना ।। ८५ ।।
अब निर्जराभावना कहते हैं
।४१२। संसारबीजभूतानां कर्मणां जरणादिह । निर्जरा सा स्मृता द्वेधा, सकामाकामवर्जिता ॥८६॥ संसार - भ्रमण के बीजभूत कर्मों का आत्मप्रदेश से झड़ जाना या पृथक हो जाना निर्जरा है। वह दो प्रकार की है - सकामनिर्जरा और अकामनिर्जरा ।। ८६ ।।
अर्थ
:
व्याख्या :- चार गति में भ्रमण स्वरूप संसार के कारणभूत कर्मों का आत्मप्रदेश से रसानुभवपूर्वक कर्मपुद्गलों
के खिर जाने, अलग हो जाने को शास्त्रों में निर्जरा कहा है। वह निर्जरा दो प्रकार की है- 'मेरे कर्मों की निर्जरा हो' ऐसी इच्छापूर्वक या विशुद्ध उद्देश्यपूर्वक तप आदि करना; सकाम - निर्जरा है। इस लोक और परलोक के फल की इच्छा करना | निर्जरा नहीं है, क्योंकि साधक के लिए ऐसी इच्छा करना निषिद्ध है। कहा भी है कि 'इस लोक के सुख की अभिलाषा से तपस्या नहीं करनी चाहिए, परलोक में ईष्टसुखप्राप्ति के लिए भी तप नहीं करना चाहिए; कीर्ति, प्रशंसा एवं वाहवाही | आदि के लिए भी तपश्चर्या नहीं करनी चाहिए; निर्जरा ( आत्मशुद्धि) के लाभ के सिवाय अन्य प्रयोजन से तप नहीं करना | चाहिए। (दश वै. ९/४) यह है सकामनिर्जरा का स्वरूप। इसके विपरीत अकाम-निर्जरा है, जो पूर्वोक्त अभिलाषा से | रहित है। वह मेरे पापकर्मों का नाश हो' इस अभिलाषा से रहित है ।। ८६ ।।
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