Book Title: Yogshastra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 383
________________ आश्रव भावना स्वरूप - आठ कर्म के आश्रव हेतु योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक ७८ आमोद-प्रमोद का स्वभाव, खेल तमासे देखने की आदत, दूसरे का मन ललचाना, दूसरे को आकर्षित करना आदि। अरतिनोकषाय-आश्रवहेतु - दूसरे की रति (प्रेम) का भंग करना, बुरे (अकुशल) कार्यों को प्रोत्साहन देना आदि। भयनोकषाय-आश्रवहेतु - स्वयं भयभीत होना, दूसरों को डराना-धमकाना, आतंक पैदा करना, क्रूर (निर्दय) बनना, हैरान करना, पीड़ित करना आदि। शोकनोकषाय-आश्रवहेतु- स्वयं शोक (चिंता) करना, दूसरे को शोकमग्न करना, शोक के वशीभूत (अतिचिंतित) होकर रोना, विलाप करना, दुःखित होना आदि। जुगुप्सानोकषाय-आश्रव के हेतु - चतुर्विधसंघ की निंदा करना, अवर्णवाद (अपशब्द) कहना, संघ एवं साधुओं की बदनामी करना, गाली देना सदाचार धर्म एवं सदाचारी से जुगुप्सा, घृणा करना, दूसरों में उनके प्रति नफरत फैलाना, दूसरों की श्रद्धा डांवाडोल करना आदि। स्त्रीवेदनोकषाय - आश्रव के हेतु ये हैं-ईर्ष्या, विषयासक्ति, मूर्छा, असत्यवादिता, अतिवक्रता, दंभ (माया) करना, परदारसेवन में आसक्ति रखना आदि। पुरुषवेदनोकषाय-आश्रवहेतु - अपनी स्त्री में ही संतोष रखना, ईर्ष्यारहित वृत्ति, कषायमंदता, सुंदर आचारसेवन आदि। नपुंसकवेदनोकषाय-आश्रवहेतु - स्त्रीपुरुष दोनों के साथ मैथुनसेवन की लालसा, उग्र कषाय, तीव्र कामाभिलाषा, व्रताचरण में दंभ करना, स्त्री का व्रत-भंग करना आदि। चारित्रमोहनीयकर्म के सामान्य रूप में आश्रवहेतु - साधुओं की निंदा करना, धर्म का विरोधी बनना, धर्माचरण में विघ्न डालना, मद्यमांस में रत रहना, अविरति की प्रशंसा करना, श्रावकधर्म-पालन में विघ्न डालना, अचारित्रीजनों के गुणगान करना, चारित्र में दोष बताना, कषाय, नोकषाय या अन्य आवेश की उदीरणा (उत्तेजना) पैदा करना आदि। आयुष्यकर्म के आश्रव हेतु - पंचेंद्रिय जीवों का वध करना, बहुत ही आरंभ करना, महापरिग्रह रखना, मांसाहार करना. उपकारी का उपकार भल जाना. बल्कि अनपकार करना, सदा वैरभाव रखना. रौद्रध्यान करना, मिथ्यात्वानुबंधी कषाय, कृष्ण-नील-कापोतलेश्या रखना, झूठ बोलना, परद्रव्य का अपहरण करना,बार-बार मैथुन-सेवन करना, इंद्रियों को निरंकुश रखना आदि नरकायु-आश्रव के हेतु है; उन्मार्ग का उपदेश देना, सन्मार्ग का लोप करना, चित्त में मूढ़ता रखना, आर्तध्यान करना, शल्य से युक्त रहना, माया करना, आरंभ-परिग्रह में रत रहना, अतिचारसहित व्रत एवं शील का पालन, नील और कापोत लेश्या रखना, अप्रत्याख्यानावरणीय कषायसेवन ये तिर्यंचायु-आश्रव के हेतु हैं। अल्पारंभ, अल्पपरिग्रह, स्वभाविक मृदुता (नम्रता) सरलता, कापोत और तेजोलेश्या वाला, धर्मध्यान में अनुराग, प्रत्याख्यानीकषाय, मध्यमपरिणामी, सत्कार करने वाला, देव-गुरु का पूजन, आगंतुक का मधुरवचनों से सत्कार, प्रियभाषणं, सुखपूर्वक समझी जा सकने वाली लोकयात्रा में माध्यस्थभाव ये सब मनुष्यायु-आश्रव के हेतु हैं और देवायु-आश्रव के हेतु ये हैं - सरागसंयम, देशसंयम, अकामनिर्जरा, कल्याणकारक मित्र से संपर्क रखना, धर्मश्रवण करने, कराने का स्वभाव, योग्यपात्र को दान देना, तपःश्रद्धा, रत्नत्रय की विराधना न करना, मृत्यु के समय पद्मपीतलेश्या के परिणाम, बालतप करना, अग्नि, जल आदि साधनों से प्राणत्याग करने की वृत्ति, अव्यक्त सामायिक करना आदि। नामकर्म के आश्रव हेतु - मन, वचन, काया की वक्रता, परवंचन, माया के प्रयोग करना, मिथ्यात्व, चुगली, चंचलचित्त रखना, नकली बनावटी सोना आदि बनाना, झूठी साक्षी देना; वर्ण-गंध-रस-स्पर्श आदि के संबंध में अन्यथा (विपरीत) कथन करना, किसी के अंगोपांग काट देना, यंत्र-कर्म करना अथवा पक्षियों को पींजरे में बंद करना, झूठे नाप-तोल (गज व बांट) रखना, दूसरे की निंदा एवं स्वप्रशंसा करना; हिंसा-असत्य-चोरी-अब्रह्मचर्य-महारंभमहापरिग्रह-सेवन करना, कठोर असभ्यवचन बोलना, अच्छा वेष धारण करने का अभिमान करना, उटपटांग यद्वातद्वा बोलना. आक्रोश करना, सौभाग्य (सुहाग) नष्ट करना, कामण-टुमण (मारण-मोहन-उच्चाटन आदि) का प्रयोग करना, दूसरे से उपद्रव कराना या स्वयं करना, कौतुक (खेल तमाशे) करना-कराना, भांड-विदूषक की-सी चेष्टा करना, किसी की फजीहत या बदनामी करना, वेश्या को आभूषण देना, दावाग्नि लगाना, देवादि के लिए गंध (पदार्थ) की चोरी करना; तीव्र कषाय करना, मंदिर, उपाश्रय या उद्यान नष्ट करना या उजाड़ना, कोयले बनाने या बेचने का धंधा करना, ये सब अशुभनामकर्म-आश्रव के हेतु हैं। इन (पूर्वोक्त) से विपरीत तथा संसारभीरुता, प्रमाद त्याग करना, सदभाव दर्शाना. क्षमादि गण धारण करना. धर्मात्मा परुषों के दर्शन से आनंद मानना. उनका स्वागत करना इत्यादि; शुभनामकर्म-आश्रव के हेतु है। अरिहंत, सिद्ध, गुरु, स्थविर, बहुश्रुत, गच्छ, श्रुतज्ञान, तपस्वी आदि की भक्ति 361

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